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श्रत
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अनेकान्त
[वर्ष १३ कि कुन्दकुन्दने अरहंतादि सुभत्ती''सुहजुत्ता हवे चरिया समन्तभद्र एकही श्लोकमें व्यक्त करके गागरमें सागर भरनेमहत् भकिशुभोपयोगका पुण्य बांधने वाली, प्रशस्त राग- की कुशलता दिखाते हैं। रूप बतलायी है-जो एक तरहका बंध ही है । यह भनि समंतभद्रकी महत्भक्ति करनेका और भी एक कारण पुण्य बंध बहुत देगी परन्तु कर्मों का क्षय करनेमें असमर्थ यह है कि उनकी भावना अहत्के समान बनने की है । इमहै इस तरह कुन्दकुन्द स्पष्ट कहते हैं:
लिये वे बारबार कहते हैं 'जिनश्रियं मे भगवान् विध'बंधदि पुराणं बहसोण दु सो कम्मक्खयं कुणदि । त्ताम' कन्दकदकी भक्रिय भावोत्कटता.विचार-तर्क परी'सिद्धंसु कुणदि भत्ति णिव्वाणं तेण पप्पेदि' पंचा.१६६ क्षिकताकी अपेक्षा अधिक है । उनकी भावभक्रिनगंगापर
चित्तकी सरलताका सौंदर्य झलक रहा है। इसके अलावा इसीलिये कुन्दकुन्दकी परिणति पुण्य-पापसे निरपेक्ष होकर,
समंतभद्रकी कि धूपकी रोशनीके समान प्रखर तेजःपुख्त शुद्ध निश्चय परमात्माको तथा सिद्धक्रिकी ओर अधिक ज्ञात होती है। इसके अतिरिक्र समन्तभद्रको महद्भक्तिकी ही जगन
है। उसमें विचार परीक्षा, तत्त्वनिष्ठा, स्वाभिमान और गाढ़
श्रद्धाका प्रचण्ड सामर्थ्य एक प्रकारसे कूट-कूटकर भग है। . लगी थी। ये शुभोपयोग सातिशय पुण्य बंधके लिये चाहते
एकके भक्तिरसमें अपनी आत्मा शीतल,शान्त चंद्रकिरणोंका हैं। जो परम्परासे मुक्रिका ही कारण कुन्दकुन्दने हो कहा है।
आनंद लेती है, तो दूसरेकी भक्तिके प्रखरतेजसे आँखें 'सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स। चकाचौंधिया जाती है और मस्तक नत हो जाता है और दरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपओ तस्स ॥१७॥ अंतः करणकी सारी प्रवृत्तियां जागृत हो उठती हैं।
इसीलिये समन्तभद्र पूजन-अर्चनादि कर्ममें सावध पुण्य-पाप-व्यवस्थालेश होने पर भी परवाह नहीं करते । यह सावद्यलेश 'बहु- अद्भकि जब एक शुभोपयोग-प्रशस्तराग हैपुण्य राशिके' सामने नहीं के बराबर है । इस प्रकार यह जिसका पालंबन केवल अशुभोपयोगसे छुटकारा पाकर कहना अनिवार्य हो जाता है कि समन्तभद्रकी भक्रि शुभोप- शुद्धोपयोगकी ओर बढ़नेके लिये है। तब शुद्धोपयोग ही ग्राह्य योगयुक्त थी; जहाँ कुदकुदकी भकि शुद्धोपयोगकी थी। है शुभोपयोग उसके सामने हेय त्याज्य है । शुभोपयोग
दूसरी विशेषता यह कि जो भक्ति कुदकुद दशभ क्योंमें सातिशय पुण्य बंधका कारण होकर परंपरासे मुक्तिका कारण सौ श्लोकों-द्वारा करते हैं वही भक्ति समन्तभद्र एक श्लोक कहा है। द्वारा दिखलाते हैं । यथा
कुन्दकुन्दके समयसारमें पुण्य-पापका एक स्वतंत्र सुश्रद्धा मम ते मते स्मृति रपि त्वय्यर्चनं चापि ते।। अधिकार है । पुण्य-पाप शुभा शुभपरिणामोंसे
परिणमता है। लेकिन ये दोनों पुण्य-पाप सुवर्ण हस्ताबज्जलये कथाश्रुतिरतः कर्णोक्षि संप्रेक्षते।
लोहशृङ्खलाके समान जीवको बंधन में ही डालने वाले संग्तुत्या व्यसनं शिरोनति परं सेवेहशी येन ते। है। समयसारमें कुन्दकुन्दने पुण्य-पाप बंधका कारण तथा तेजस्वी सुजनोहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते । पुण्य-पापातीत वीतराग अवस्थाही मोक्षका कारण कहा है।
कितनी गाद भक्रिकी यह उन्कटता ! शरीरका एक भी समन्तभदने यही बात दूसरे शब्दोंमें प्राप्तमीमांमाके पुण्यअवयव वे जिनकि के विना खाली रखना, दुसरे काममें पापाधिकारमें बतलायी है। पुण्य-पापके बारेमें वे कहते हैं जगाना पसन्द नहीं करते। इस एकही पद्यमें कुन्दकुन्दकी कि परमें दुग्वोत्पादनसे न सर्वथा पाप होता है और सुखोसारी भक्कियोंका भाव भरा हुआ है । उदाहरणके तौरपर पादनसे न सर्वथा पुण्य अन्यथा अचेतन पदार्थको भी पुण्य'कथा तिरतः' वाक्य श्रुतिभक्निका घोतक है, 'हस्ताबजलये:' पापका फल मिलना चाहिये ? परंतु यह देखने में नहीं आता। शब्द उन योगियों-अनगारोंका है जिनके पास भक्तिके लिये और यदि इससे विपरीत माना जाय तो वीतरागियोंको भी अपने अंग हस्तावंजलिके सिवा और कुछ नहीं है, बंध होना चाहिये था पर होता नहीं । समंतभद्ने पुण्ययोतक है । 'स्तुत्यां व्यसनं' तो तीर्थकर भक्ति ही है-जो पापकी व्यवस्था प्राप्तमीमांसामें बड़ी मार्मिक तथा रहस्यपूर्ण
ने विस्तारसे अन्य ग्रंथोंमें की है। इस प्रकार कुन्दकुन्दकी की है। वे कहते हैं:विस्तारसे भक्ति-पाठों में जैसी बहती है उसीके भाव विशद्धि संक्लेशांग चेत् स्त्रपरस्थं सुखासुखम् ।