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वर्ष १३
श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन [३०३ श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमाओंका नामनिर्देश कुन्दकुन्दने किया है, समंतभद्र द्वारा विस्तार हुआ देखा जाता है।
दोनों प्राचार्योंके उपास्य अरहत देव तथा सिद्ध भगबारहवोंके शिक्षावतसम्बन्धी भेदोंमें सल्लेखनाका नाम वान है। कन्दकुन्दने नियमसारमें परमभक्ति अधिकार तथा कुन्दकुन्दने बतलाया है; परन्तु समन्तभद्रने यह सोचकर दश भक्रियां लिम्बी हैं। वह भनि सरल एवं विशुद्ध चित्तसे कि मरणसमय धारण की जाने वाली सल्लेखनाका बनी है। समंतभदकी अहवभक्ति तो उनकी नस-नसमेंले जन्मभर यम-नियम रूपसे कैसे पालन किया जायेगा, फूट रही है। श्रावकाचारके सिवाय वाकीके सारे स्तोत्रग्रंथ श्रावकवतोंमें पल्लेग्वनाकी उपेक्षा करके उसकी भाव- तत्वका दार्शनिक तथा तास्तिक पुट लेकर अंतर्बाह्य भकिसे श्यकता कहनेके लिये सल्लेग्वना पर स्वतंत्र अधिकार प्राप्तावित है। कुंदकंदकी भनि निश्चय सरूपकी होनेसे तिखा और उपका विस्तारसे निरूपण किया है। एक परमार्थकी ओर ले जानेवाली है, समंतभद्रकी भक्ति व्यवहार
और विशेषता दोनोके श्रावक्रधर्ममें है और वह यह कि मार्गकी तथा प्रागे तीर्थकर प्रकृतिबंधके रूपमे सातिशय पुण्य कुन्दकुन्दने बतों की स्थिरता करनेके लिए पांच पांच भावनाएँ प्राप्त करने तथा परम्परासे मांस पाने वाली है। कुन्दकुन्दने कही हैं और ममंतभद्ने उमास्वामीकी तरह वनोंका निर्दोष सबसे पहले रत्नत्रयभकि कही है और उसे करनेवाला जीव पालन होनेके लिए प्रत्येक इतके पांच पांच अतिचार कहे हैं। निवृत्ति पाता है।
जिम तरह श्रावकाचारके सिवाय, समंतभद्रके सभी सम्मत्तणाण चरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो। ग्रंथोंमें अनेकांत स्थाद्वादन्याय समाया हुआ है उसी तरह तस्स दुणिव्वुदि भत्ती होदि जिणेहि पएणतं ॥ कुंन्दकुन्दके सभी प्रथोंमें निश्चय मोक्षमार्ग और मुनिचारित्र- उन्होंने आगे कहा है कि व्यवहारनयकी प्रधानतासे की छटा दिखाई देती है। परंतु दोनों श्राचार्यों द्वारा प्रति- मोक्षगामी पुरुषोंको-तीर्थकरोंकी-भक्ति-करनी चाहिये। वे पादित चारित्र अविरोधी है तथा वीरशापनक सूत्रमें गूंथा उपसंहार में कहते हैं:- . ही हुमा है।
उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवर भत्ति । अनुप्रेक्षा-इसका विचार समंतभद्रके प्रथोंमें प्रायः ।
सिव्वुदि सुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।। नहों के बराबर हैं। अनुप्रेक्षा नित्यभावना अंतरंग विशुद्धिकी चीज़ है । समन्तभद्र के बुद्धिप्रधान दार्शनिक, वैचारिक तथा
अपने भनि-पाठोंमें आपने सिद्ध, श्रत, चारित्र, योगी, तार्किक दृप्टिमें भावना अनुप्रे लाको इतना बड़ा और प्रकट
निर्वाण, नंदीश्वर, शान्ति, तीर्थकर, पञ्चपरमेष्ठी इन सबकी स्थान नहीं मिलने पर भी उनके परिणामोंकी विशुद्धि एवं
भक्रि विस्तारसे को है। ममन्तभद्रकी कि सिर्फ मुनिभद्रता स्तोत्रके चरण-चरणमें प्रतिबिम्बित होती है। और
श्रमणोंके लिये नहीं, बल्कि श्रावकके लिये भी है। वृषभादि
चौवीस जिनोंको भक्रिमें उनकी प्रात्मा इतनी तन्मय हो गई ऐसा भी नहीं कि उन्होंने अनुप्रेक्षाक विषयमें कुछ भी न
थी कि उन्हींके शब्दों में उन्हें यह एक व्यसन हो गया था। कहा हो-वे रत्नकरण्डकी
जिनभक्रिका उद्देश्य उन्होंने कितने ही स्थलों पर प्रगट अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनान्मानमावसामि भवम् ।
किया है। वे कहते हैं-'तथापि भक्त्या स्तुतपादपद्मो मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायंतु सामयिके।
ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चैः'। अमकी भक्निमें मुझे इस कारिकाके द्वारा अशरणादि भावनाओंके चिंत- कल्याणपरम्पराका सामर्थ्य मिल जाप | और भी जो कुछकह नकी श्रावकों तकको स्पष्ट प्रेरणा करते हैं। कुन्दकन्दका रहा हूँ वह 'पुनानि पुण्यकीर्तनस्तनो ब्र याम किश्चन'। 'बारसायुपेक्खा' नामक स्वतंत्र ग्रंथ है। अनुप्रेक्षाका उद्देश्य आपका नामोच्चारण हमें पवित्र करे इसलिये कुछ कहता पण्डित दौलतरामजीके शब्दों में 'वैराग्य उपावन माई, हूं। प्राईजिनके 'वीतरागी' तथा निर हो चुकनेसे उन्हें चित्यो अनुप्रेक्षा भाई।' इस वाक्यमें संनिहित है । और स्तुति-पूजा तथा निन्दासे कुछ मतलब नहीं है। उनका पुण्यवस्तुतः अनुप्रेक्षाका अधिकारी मुनि सकलव्रती ही हैं। वे गुण-स्मरण ही चित्तका दुरित-पाप नष्ट करनेमें समर्थ है। बड़े भाग्यवान तथा संसार-भोगसे विरक्त होते हैं।
दोनों प्राचार्योंकी भक्रिय यह एक स्वाय विशेषता है