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अनेकान्त
[वर्ष १३
प्राप्तमीमांसा किया है। हाँ, यह ठीक है कि जहाँ समंतभद्र- इस प्रकार सापेक्षवादकी घोषणा समन्तभद्रने की है। ने इसका स्पष्ट रूपसे विद वर्णन किया है वहाँ कुदकुदने पर हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि यह सारा वृक्ष विस्तार केवल उनके नामोंका ही निर्देश किया है।
कुन्दकुन्दके बीजांकुरसे ही हुआ है। अनेकान्तके बारेमें समन्तभदने सिंहके समान गर्जना ५. चारित्र-रत्नत्रयके सिवाय चारित्र पर भी दोनों करके कह दिया है कि सर्वथा एकांती ही स्व-पर बैरी हैं :- पाचर्योंने काफी प्रकाश डाला है। चारित्र संपन्न ही मनुष्य 'एकान्तमहरकतेषु नाथ स्व-पर-वरिष
धीर-शासनका अधिकारी हो सकता है। चारित्रके दो भेद प्रत्येक वस्तुमें अनेक अंत-धर्म होते हैं । वस्तुका स्वभाव
दोनों प्राचार्यों द्वारा मान्य हैं एक सकलचारित्र अथवा तर्कका विषय नहीं, 'स्वभावोऽतर्कगोचरः' ऐसा प्राप्तमी
मुनिचारित्र दूसरा देशचारित्र अथवा श्रावकचारित्र । कुन्दमांसामें कहा है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तीनोंका अविनाभाव
कुन्दके सभी ग्रन्थों में मुनिचारित्रका विस्तार है। प्रवचनसारका कुन्दकुन्दने कहा है,समंतभद्रने पृथक्-पृथक् एक-अनेक, नित्य- एक
. एक खास अधिकार, नियममार, चारित्रभकि, चारित्रपाहुड अनित्य, भाव-भावके रूपसे अनेकांतवादको बतलाया है। -सबमें प्रधाननया मुनिचारित्रकी सभी छोटी बड़ी बातें दोनोंका उद्देश्य वस्तुस्वरूप कहना ही है-केवल दोनोंके कही है। कहनेका तरीका भिन्न ज्ञात होना है। तत्त्वके लिए कुदकुद
समन्तभद्रके ग्रन्थोंमें मुनिचारित्रका व्यवस्थित निरूपण द्रव्य शब्दका व्यवहार करते हैं। और अस्ति-नास्ति रूपसे
नहींके बराबर है, यो सांकेतिक एवं सूचना रूपमें उन्होंने उसकी सिन्द्वि करते हैं समन्तभद्र तत्त्वका विधि-निषेध
स्वयम्भूस्तोत्रमें बहुत कुछ कह दिया है। जैसे कि उसकी रूपसे प्रतिपादन करते हैं इस तरह केवल कहनेका तरीका
प्रस्तावनामें मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके द्वारा विश्लेषित मिस है । कुदकुद तत्वका स्वरूप कहते समय भूतार्थ
करके रक्खे हुए 'कर्मयोग' प्रकरणसे जाना जाता है। अभूतार्थ और द्रव्य-पर्यायका उपयोग करते हैं। पर समन्तभद्र
उन्होंने श्रावकधर्म पर एक स्वतंत्र ग्रन्थ निर्माण किया । उसे सामान्य-विशेष, विवक्षित अविदित, मुख्य-गौण और
क्योंकि यह उस समयकी एक मांग थी। कुन्दकुन्दके समय अर्पित-अनपित शब्दों द्वारा कहते हैं। कुदकुदके प्रथमें
लोगोंका झुकाव मुनिप्रवृत्तिको और अधिक होगा। शायद बार बार निश्चय तथा व्यवहारका उपयोग मिलेगा।
मुनिचारित्रको स्थिर और अचल बनानेके लिये ही उन्हें समंतभद्र उसीके लिये भेद-अभेद कहते हैं। तस्व स्याद्वाद
मुनिधर्म विस्तारसे कहना पड़ा। ही है-अनेकान्त रूप ही है यह बात समंतभद्ने अपनी
समंतभद्रके समयमें वादियोंका स्वमतकी स्थापना स्तुतियोंमें सिंहनादके साथ कही है। इस प्रकार दोनों
तथा उसे सुरढ़ बनानेका आंदोलन चला था। मुनिप्रवृत्ति आचार्यों में सप्तभंगी-स्याद्वाद-अनेकांतकी सिद्धि करते समय
शिथिलाचारी बनने लगी थी। और सबसे पहले श्रावकधर्मअपनी-अपनी खास विशेषता है, पर यह विशेषता एक दूसरेकी
की आवश्यकता ज्ञात होने लगो । समंतभद्रको श्रावकधर्मका विरोधी नहीं।
नवोन्मेष-पुनरुज्जीवन करना पड़ा। इसके अलावा मुनि-श्रमण सापेक्ष नयोंको सार्थकता समंतभद्रने इतनी सयुनिक
धर्मकी स्थिरता तथा प्रभावना कुन्दकुन्दने की है। मार्गतथा यथार्थ कही है कि निरपेक्ष नयोंका कदाग्रह रखने वाली
प्रभावना उनका लचा था तो भी श्रावकधर्मका निरूपण वृत्ति समूल नष्ट हो जाती है । उन्होंने कहा है कि
कुन्दकुन्दके चारित्रपाहुड और भावपाहुडमें मिलता है।
कुछ नौपचारिक भेद दोनोंके निरूपणमें है । कुन्दकुन्द बारह 'मिथोऽनपेक्षाः नयाः स्व-पर प्रणाशिनः ।'
व्रतोंका पालन करने वालोंके लिए 'श्रावक संज्ञा देते हैं'परस्परेक्षा नयाः स्वपरोपकारिणः।।'
पञ्चवणुव्वयाइं गुणवयाइं हवन्ति तह तिरिण । स्व-पर-नाश तथा स्व-पर-उपकारके सिवाय हानि- सिक्खावय चत्तरिसंजमचरणंच सायारं। चारित्र पा०२३
उन्हान स्पष्ट कह दिया है कि समन्तभद्र अष्टमूलगुणोंका पालन करनेवालेको 'श्रावक' अनेकांत भी यदि एकांत-निरपेक्ष हो तो वह मिथ्या ही है- कहते हैं
अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नय-साधनः। मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपंचकम् । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितानयात् ।। अष्टौ मूलगुणानाहुगृहिणां श्रमणोत्तमाः ।।रत्न० ६६