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किरण ११-१२]
श्री कुन्दकुन्द और समन्तमद्रका तुलनात्मक अध्ययन
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'जीवादी सदहणं सम्मतं, तेसिमधिगमो णाणं। इन्होंने खास तौर पर जैनदर्शनमें न्यायका प्रतिष्ठापन किया रायादिपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो॥ है। तथा सप्तभगोको स्थिर बनाकर दर्शनशास्त्रकी प्रत्येक
समय० १३४।
दिशामें उसका व्यावहारिक उपयोग किया है। प्रमाणका ये लक्षण समन्तभद्रके लक्षणोंसे मिलते-जुलते हैं।
दार्शनिक लक्षण तण फल बतलाया, श्रुतप्रमाणको स्याद्पर एक बात पर ध्यान अवश्य जाता है कि जहाँ ददने वाद कहा तथा उसके अंशको नय । सम्यक्-सुनयों तथा नियमसारमें प्राप्त-भागम-तत्व इन तीनोंके दासको मिथ्या-दुर्नयों की व्यवस्था की है। इन्होंने स्पष्ट कह दिया सम्यग्दर्शन कहा है वहां समन्तभदने तत्वके लिये तपोभृत्- है कि अनेकान्त भी एकान्तयुक्त हान गुरुको कहा है। [दोनों गाथाएँ भागे असमान सूची में देखो] सर्वथा अनेकान्त होकर व्यभिचरित होगा। कन्दकन्दने निश्चय नत्रयका निरूपण विस्ता
कुन्दकुन्दके समय तक प्रणाली या न्यायशास्त्रका है, इसकी प्राप्ति ही जीवका उद्देश्य बतलाया है। परंतु इतना विकास नहीं हुआ था, तो भी समंतभद्रकी प्राप्त समंतभद्ने व्यवहार रत्नत्रयका निरूपण विस्तारसे किया मीमांसा प्रायः कुन्दकुन्दकृत श्रीर प्रवचनसार की नींव पर है। निश्चयका निरूपण समंतभद्रके ग्रंथों में नहीं के बराबर है। ही खड़ी है । उन्हींकी समभूमि पर ही समंतभद्र प्रत्येक कुन्दकुन्दके निश्चयरत्नत्रयके स्वतंत्र ग्रंथ प्राभूतत्रय कहे जाते तत्त्वको न्यायकी तुलामें तोलते हैं। प्रमाणसे अबाधित प्राप्त हैं । किंतु दोनोंका लक्ष्य रत्नत्रयकी प्राप्ति होने पर भी रुचि को ठीक-ठीक सिद्धि करके उन्होंने शेष सारे प्राप्तोंकी प्रमाणभिन्नतासे ग्रन्थमें मुख्य-गौणता विषयकी करदी गई है। बाकी बाधा दिखलाई है। कुछ मेद नहीं दिखता।
४. सप्तभंगी. अनेकान्त या स्याद्वाद तथा नय३. न्यायकी झलक तथा उपयोग-कुन्दकुन्द के पहले इन सबकी देन समंतभद्रको कुन्दकुन्दसे मिल चुकी है। तत्त्वचर्चा तथा वाद-विवाद अवश्यही होते थे और उनमें कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित सप्तभंगीका विस्तार ही समन्तभद्रयुक्ति-भागम तथा परम्पराका उपयोग किया जाता था। ने अपने स्तोत्र-मथों में किया है। अर्हत्-जिनोंकी स्तुति भी परन्तु खास युकि न्याय-शास्त्र पर स्वतन्त्र रचना नहींके स्याद्वादसे गुम्फित है। परन्तु सप्तभंगोका उल्लेख कुन्दकुन्दके समान थी। श्री कुन्दकुन्टके प्रवचनसार जैसे सैद्धान्तिक प्रवचनसार और पंचास्तिकायोंमें संक्षेप में ही पाया जाता है। ग्रंथों तक युक्रिपूर्ण दार्शनिकताकी झांकी स्पष्ट है। परन्तु यथाउसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाणके भेद पाये जाते हैं अत्थि त्ति य णत्थि त्तिय हवदि अवत्तव्व मदि पुणो दव्वं तथा सप्तभंगीका निरूपण संक्षेपसे पाया जाता है। पर पजजायेण दु केण वि तदुभयमादिठ्ठमण्णं वा॥ न्यायशास्त्रकी हेतु अनुमानादिकके रूपसे प्रगति नहीं हुई थी।
प्रव०२.२३ उमास्वामीकी कड़ीने कुन्दकुन्द तथा समन्तभद्रकी शृङला सिय अस्थि णत्थि उहयं श्रवत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । सावी थी, उमास्वामीने न्यायोपयोगी सामग्री तथा सप्तनयों- दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि ।।पंचा०१४ की निर्मिति को है।
प्रश्नके अनुसार वस्तुमें प्रमाणाविरोधि विधि-प्रतिषेधकी उमास्वामीके अनन्तर समंतभद्ने सबसे पहले 'न्याय' कल्पनाको सप्तभंगी कहते हैं। प्रागमनथोंमें 'सिय अस्थि, शब्दका व्यवहार किया तथा न्याय-अथ लिखा है। प्राप्तकी मियणत्थि, सिय प्रवत्तव' रूपसे तीन ही भंगोंका निर्देश स्तुतिके बहाने अद्वैतवाद, नित्यएकांतवाद, भेद एकांतवाद है। सर्वप्रथम प्राचार्य कुदकुदके ग्रंथोंमें हमें सात भंगोंके तथा अभेदएकांतवाद प्रादि सभी एकांतवादियोंकी बड़ी कड़ी दर्शन होते हैं । वस्तुतत्त्व अखंड, अनिर्वचनीय तथा अनंतबालोचना करके युकि न्यायसे अनेकातिवादको स्थापना तथा धर्मा है। इस स्थितिके अनुसार अस्ति, नास्ति तथा प्रवक्तव्य उपेयतत्त्वके साथ-साथ उपायतत्व पागम और हेतुमें अने- ये तीन ही मूलभंग हो सकते हैं, अागेके भंग तो वस्तुत: कोई कांत गूंथकर स्यादवादको स्थिर किया है। उस समय स्वतंत्र भंग नहीं है । कार्मिक भंगजालकी तरह द्विसंयोगी आगम हेतुसे सर्वथा अलग होगया होगा। इसीसे समंतभद्र- रूपसे तृतीय, पंचम तथा षष्ठ भंगका आविर्भाव हुआ तथा को हेतुवादकी कसौटी पर प्राप्तको कसना पड़ा।
सप्तमभंगका त्रिसंयोगीके रूपमें । तीन मूल भंगोंके अपुनुरुक जैन न्यायकी जड़ तो समन्तभद्रसे ही शुरू होती है। भंग सात ही हो सकते हैं। इसीका विस्तार समन्तभद्रने