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अनेकान्त
[वर्ष ३
यह ग्रन्थ मानों श्रावक धर्मको प्रकाशित करने वाला तेजस्वी कुन्दकुन्दने 'प्रात्मा जाननेसे सब जाना जाता है। कहा
है। पर प्रात्मा का जाना जायगा? वे स्वयं इसकी तालिका समन्तभद्र के अन्योंकी एक खास विशेषता यह दिखती देते हैं, जैसे किहै कि अपने सभी प्रन्योंके इन्होंने दो दो नाम दिये हैं। जो जाणदि अरहंतं दव्यत्त-गुणत्त-पज्जयत्तहिं । एक प्रायः प्रन्यारम्भमें उल्लिखित और दूसरा ग्रन्थके मुख्य सो जाणदि अप्पाणं मोहं खलु जादि तस्स लयं ॥ विषयानुसार-अन्वर्थसंज्ञक । जैसा कि लेखके प्रारम्भमें बताया
-प्रवचनसार ८०॥ गया है।
कुन्दकुन्दने प्रात्माकी सर्वज्ञता सिद्ध करके नित्यवादी दोनों आचार्यों के सामान्य विषय और विशेषता सांख्य और क्षणिकवादी सुगतोंका खण्डन किया है। संसारमें अवयव-समानता तथा मनुष्यजन्म पानेसे सभी
पात्मन्यकी सिद्धि पर्याय तथा द्रव्यसे की गई है। इसके
बलावा समन्तभदने जो प्रान्मा अर्हत् बन चुकी है उसीमें मनुष्यों के लिए एक ही मनुष्यसंज्ञा है । परन्तु सारे मनुष्योंमें
प्राप्तस्वकी-सर्वज्ञत्वको सिद्धि की है। अरहतके सिवाय और से प्रत्येकका व्यक्तित्व पहचाननेवाली मूरत अलग अलग
दूसरेकी सर्वज्ञता मिद्ध ही नहीं हो सकती, वही सर्वज्ञ हैही होती है । अभिन्नत्वमें भिमस्वकी विद्यमानता तथा
इस तरहको सिंहगर्जना अपने सारे स्तुतिप्रन्थों में की है। ये भिवत्वमें अभिन्नत्वका अस्तित्व ही अनेकान्त-स्याद्वाद धर्म कहलाता है सामान्य दृष्टिसे हमारे दोनों प्राचार्योने जिन
प्रखर तार्किक, प्रचण्डवादी तथा प्रकांड वाग्मी थे। उन्होंने शासनका ही प्रतिपादन किया है। किन्तु अपनी-अपनी विशेष
स्थान-स्थान पर भ्रमण करके प्रहदविना अन्यको प्राप्तकी
मान्यता देनेवाले सब वादि-प्रतिवादियोंको-परास्त किया है। ता लेकर । क्योंकि दोनोंका समय, परिस्थिति, समाजको
एक बात पर गलत धारणा है कि देव तथा अरंहतके माँग और व्यक्तित्व, रुचि अलग अलग थी। इतना होने पर
लिये 'पास' शब्दका व्यवहार सबसे प्रथम समन्तभद्रने ही भी दोनोंका विषय परस्पर विरोधी तथा एक ही सूत्रमें
किया है। इस तरह पं० कैलाशचन्द्र शास्त्रीने प्राप्तपरीक्षाबैंधा हुआ है। समन्तभद्रने प्राय: कुन्दकुन्दका ही तत्व कहीं
के प्राक्कथनमें पृष्ट ६ पर लिखा है। परन्तु कुन्दकुन्दने भी विस्तारसे कहीं संक्षेपसे बतलाया है।
अरहंत तथा देवके लिए 'अत्तागमतचाणं' जैसे पद-द्वारा यहाँ पर ऐसे ही चुने हुए कुछ सामान्य विषयों पर
प्राप्त शब्दका व्यवहार नियमसार की श्वीं गथामें किया है। परस्पर विशेषता दिखलानेको चेष्टा की जायेगी:
अन्य स्थल पर भी उनके द्वारा 'प्राप्त' शब्दका व्या. १.सर्वज्ञसिद्धि या परमात्मसिद्धि-यह दोनों ही हार किया गया है। बाकी दोनोंको सर्वज्ञता और निर्दोषना प्राचार्योका विषय और उद्देश्य था। भ० कुन्दकुन्दके समय कर्मोसे रहित ही मान्य है। तर्क तथा न्यायको आवश्यकता इतनी नहीं थी । अहत्श्रद्धा
२. रत्नत्रय-निरूपण-व्यवहार तथा निश्चय रत्नअनुभूति तथा निजभावनासे सर्वज्ञता सिद्ध हो जाती थी। .
ता था। अयका निरूपण दोनों प्राचार्योने किया है। परन्तु कुदकुदसर्वज्ञता परमात्मत्वको चरमावस्था है। बहिरात्म-अवस्थासे उठी
का विषय आध्यात्मिक तथा सैद्धांतिक होनेस निश्चय रत्नकर अन्तरात्मोन्मुख बनके जीव परमात्माका अवलोकन कर
प्रय पर ही अधिक जोर दिया गया है। सभी सारग्रन्थों, सकता है । कुन्दकुन्दके समय 'जो एगं जाणइ सो सव्वं
प्राकृत ग्रंथों पंचास्तिकाय आदिमें इसीकी गहरी छाया है । जाणई' अर्थात् जो एक पारमाको जानता है वह सब कुछ
कुछ इसके अलावा समन्तभद्रके सारे ग्रंथ श्रावकधर्म और जाननम समथ ह-इत्यादि वचन सवज्ञता-साधक थ। अरहतभक्रिकी प्रधानता लेकर हैं। इसलिये जहाँ तहाँ परन्तु तर्क युगमें इन वचनोंका जैसा चाहिये वैसा उपयोग
स्यांग व्यवहार रत्नत्रयका निरूपण है। नहीं हुआ। समन्तभद्रने सर्वज्ञता-सिद्धिके लिये सुन्दर
कुदकुदने निश्चय रत्नत्रयका निरूपण करनेके लिये हेतुको योजना अपनी प्रासमीमासामें की है।
भारमतत्वको केन्द्रबिन्दु बनाया। आत्मतत्व पर श्रद्धा 'दर्शन' सक्ष्मान्तरित-दरार्था प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा है, प्रारमतवको द्रव्य-पर्यायसे जानना ज्ञान है और प्रात्मामें अनमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः॥शा स्थिर होना चारित्र' कहा है। व्यवहाररत्नत्रयका निरूपण भनुमानसे सर्वशसिद्धि करना इस युगकी विशेषताथी। ये एक गाथामें करते हैं: