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किरण ११-१२
श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन
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भी यह अन्य दुरूह, दुर्बोध बना हुआ है। मईत् प्राप्तकी किसी खास विषपकी रचना करना एक सम्मान गौरवकी । मीमांसा करने पर अन्तमें महत् ही प्राप्त सिद्ध होते हैं। बात हो गई थी। भर्तृहरि जैसे महा कवियोंके नीति शतक अर्हत्के सिवाय और कोई सर्वज्ञ सिद्ध नहीं हो सकता। आदि प्रसिद्ध ही हैं। समन्तभदने भी जिनशतकके बहाने समन्तभद्रकी परीक्षाप्रधान-दृष्टिमें महत् सर्वज्ञ सिद्ध होने जि स्तुति की है । मुरजादि चक्रबंधकी रचनासे इसमें पर इन्होंने उस प्राप्तपणोत शासनको हो निर्दोष तथा सत्य चित्रकाव्यका पाण्डित्य चमक उठा है। सारे कान्यकी अंतबतलाया है। और उसका ही 'युक्त्यनुशासन' ग्रन्थके बर्बाह्य-कला इसमें फूट-फूट करके बह रही है । इसमें भावद्वारा विस्तृत विवेचन किया है।
सौंदर्य तथा उपसे भी अधिक रचना-कौशल एवं चित्रयुक्त्यनुशासन (वीरका सर्वोदयतीर्थ )
काव्यालंकार भरा हुमा हे। स्वयम्भू स्तोत्रके समान चौबीसमहावीरकी स्तुतिका पुट लेकर स्याद्वाद-अनेकान्तकी जिनोंकी स्तुनि इसमें की गई है। पर यह कोरी अलङ्कार सिद्धिर्मित यह स्तोत्र है। इसमें वीरशासनका बड़ी प्रधान स्तुति नहीं है, बल्कि तत्वज्ञानसे परिष्कृत है, काव्ययुनिसे मण्डन तथा वीर-विरुबू-मतोंका खण्डन किया गया से सुशोभित हैं और बीच-बीच में परमतोंका खण्डत तथा है । ग्रन्थके केवल ६४ पद्योंमें सारा जिनशामन भर कर समन्त-सिद्धि को भी लिए हुए हैं। 'गागरमें सागर' की उनि चरितार्थ की गई है। प्रत्येक पथ
इस प्रकार यह पद्यबद्ध बंधरचना एक विशिष्ट विद्वत्ता अर्थ-गौरव-पूर्ण है। युक्ति-न्याय-द्वारा किया गया अन्यमतका पांडित्य एवं विविध-कला-कुशलताकी घोतक है। कहा जाता निराकरण मार्मिक तथा यथार्थ हुआ है। इसीलिये इनके वचन है कि यंत्रबद्ध रचनासे विशिष्टशक्रि प्राप्त होती है। शायद मुक्कामणिसे वीरशासनका मूल्य हजार गुना बढ़ जाता है। वह शनि प्रगटानेके लिए ही इस अमूल्य कृतिको निर्मिति
समन्तभद्र 'युक्त्यनुशासन' शब्दका स्पष्टीकरण अपने हई हो। ही शब्दों में इस प्रकार कर रहे हैं :
रत्नकरण्डश्रावकाचार-समन्तभद्रकी श्रावकधर्मको 'दृष्टागमाभ्यामविरुद्ध मथे प्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते' एक बड़ी ही मूल्यवान देन है। इस रत्नके
प्रत्यक्ष और पागमसे अविरोधरूप जो अर्थका अर्थसे करण्डमें श्रावकोंका सारा भाचार संनिहित है। कुन्दनिरूपण है वही युक्त्यनुशामसन है । इस प्रन्धमें मुख्यतः कुन्दसे उमास्वामी तककी श्रावक धर्मकी परम्परा इन्हींके भौतिकवादी चार्वाकोंका निराकरण बड़ी कठोर आलोचना करके द्वारा निर्बाव एवं प्रखण्ड रखी गई है। इसीसे यह प्रक्षकिया है । माथमें वैशेषिक, सांरूप, बौद्ध, नैय्यायिक, वैदिक व्यसुखावह' ग्रंथ कहा गया है । धर्मको परिभाषा, सत्यदेव
आदि दर्शनोंका निराकरण बड़ी खूबीके माथ करके अनेकांत- गुरु-शास्त्र, आठ अंग, तीन मूढता, मदोंका निराकरण, स्याद्वादकी सिद्धि की है। एकान्तवादी, कदाग्रहो जब वीर- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, अनुयोगोंका स्वरूप, मयुक्रिक चारिशासनको समदृष्टि से देखेंगे तब तुरन्त ही वे खण्डित मान- की आवश्यकता, श्रावकयतोके अतिचार, ११ प्रतिमाओं ऋा होकर उनकी अ-भद्रता शीघ्र ही स-मंतभद्रताके रूपमें तथा सल्लेखनाका इतना सुन्दर और परिमार्जित वर्णन बदल जायगी। वीर-जिनका शामन सभी एकान्तबादी अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता। इसकी खास विशेषता यह है अन्तोंका-धोका-उदय करने वाला सर्वोदय तीर्थ है। कि श्रावकोंके अष्टमूलगुणोंका सर्वप्रथम वर्णन इसीमें
अन्धके अन्तिम श्लोकमें इस स्तोत्रका उद्देश्य कहा है मिलता है, तथा इसीमें अहत्पूजनको वैयावृत्यके अन्तर्गत कि इस ग्रन्थकी निर्मिति न राग से हो रही है, और न द्वेष किया गया है। पूजनको श्रावकवतोंमें गर्भित करनेवाले से; किंतु जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानना चाहते हैं, ये ही पहले प्राचार्य है। दूसरी खास विशेषता यह है कि वस्तु स्वरूपका गुण-दोष जानना चाहते हैं उनके लिये यह पंचाणुव्रतों पांचपापों तथा चार दानों एवं पूजनमें प्रसिद्धि पाने स्तोत्र खास तौर पर हितान्वेषणके उपाय स्वरूप है। वाले व्यकियोंका नामोल्लेख इन्होंने किया है। और तीसरी
स्तुति-विद्या ('स्तोत्रसाहित्यकी चरमसीमा') एक विशेषता यह है कि इन्होंने गृहस्थोंका दर्जा बढ़ाया है
स्तुतिविद्या या जिन शतक चित्रकाव्य तथा बंधरचना- मोही मुनिसे निर्मोही श्रावककी श्रेष्ठता घोषित की है। कौशल्यकी एक बड़ी देन है। उस समय चित्रकाव्य तथा श्रावकधर्म पर इतना मार्मिक एवं सुन्दर विश्लेषण स्वतन्त्र शतकोंका उदय हो रहा था । स्तोत्र शतक-सौश्लोकमें ग्रन्थमें दिखलानेवाले सबसे पहले ये ही प्राचार्य गए हैं।