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________________ २८] अनेकान्त । वर्ष १३ प्राप्रमीमांसा (न्यायको नीव) जायगी। सर्वथा अवाच्यतत्व ही वाच्यके विना असम्भव ग्रंथका नाम अन्वर्थसंज्ञक है। आईत्-माप्तकी मीमांसा ख-पुष्पके समान है। प्रत्यभिज्ञानसे नित्यसिद्धि और कालसई, युक्ति, पागम, परम्पराकी कसौटी पर की गई है। मेदसे अनित्यसिद्धि दिखलाकर एक वस्तुकी एक समयमें इसीसे समंतभद्र 'परीक्षेषण तथा बड़े कठोर परीक्षाप्रधानी होनेवाली उत्पाद-व्यय-प्रौव्य रूप तीन अवस्थाओंका वर्णन तार्किक कहे जाते थे। कोरी श्रद्धा जब विरोधी आंदोलनमें करके 'घट-मौलि-सुवर्णार्थी' तथा 'पयोवती' के सुन्दर और अंधश्रद्धाका रूप लेने लगी तब इन्होंने श्रद्धाको कसनेके सुयोग्य दृष्टान्तसे समझाया है। लिये युक्ति-व्यायका सहारा लिया था। सर्वथा भेदवादी वैशेषिक जो कार्य-कारण, गुण-गुणी, ___ महावीर प्राप्तकी महानता-विषयक जब शंका उठाई सामान्य-विशेष, अवयव-अवयवी, प्राश्रय-माथ्यो ये सब गई तभी इन्होंने उनकी प्राप्त-विषयक महानताका मूल्यांकन सर्वथा भिक मानकर समवायसे एक मानते हैं इनका, परमाणु मार्मिक, महत्वपूर्ण, और युक्ति-न्यायसंगत वचनोंके द्वारा नित्य कथनका, कार्य-कारणका तादात्म्य मानने वाले सांख्योंका किया । इन्होंने कहा कि दोषावरणयोहानिनिःशेषा निराकरण एक सुन्दर कारिकाके द्वारा करके स्वमतकी सिद्धि स्त्यतिशायनात्' । यही एक हेतु सर्वज्ञता सिद्ध करनेमें की है। यह कारिका तो मानो प्राप्तमीमांसाका ६ वपद ही पर्याप्त है। संसारमें कोई आदमी सर्वज्ञ नहीं था, हो सकता 'विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । नहीं और नहीं है, ऐसा कहने वाले मीमांसकादि मतों और अवाच्यतैकान्तेप्यक्ति वाच्यमिति युज्यते । भाव एकांतवादी सांख्य, जो सर्वथा भावतत्वका हठ लेकर सारे ग्रन्थमें कमसे कम १०१२ बार इसी कारिका प्रभावको छिपाना चाहते हैं, सर्वथा एकांतवादी पर्यायनिष्ठ द्वारा उभय और अवाच्यता एकांतका निराकरण किया है। बौद्ध आदि सबकी बड़ी तकठोर मीमांसा करके उनका अन्तमें अनेकान्तका सुन्दर और परिष्कृत स्वरूप दिखनिराकरण किया है। प्राग-प्रध्वंस-अन्योन्य-अन्यंत इन चार प्रभावोंका समर्थन सप्तभंगी न्याय-द्वारा करके श्राप वीरको द्रव्य-पर्यायोरक्यं तयोरव्यतिरेकता। जतला रहे हैं कि 'न च कश्चित् विरोधोऽस्ति मुनीन्द्र तव शासने । सप्तभंगी न्यायसे वीरशासन समृद्ध है। परिणाविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ।। पद्धत एकांतवादी वेदांतिक, जो ब्रह्म प्रत मानते हैं. संज्ञा-संख्या-विशेषाच्च स्वलक्षण विशेषतः । और शब्दाद्वैतवादी संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध, इनका निरा- प्रयोजनादि-भेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ॥ करण बड़ी खूबीके साथ 'अद्वैतं न विना द्वैतात् अहे- द्रव्य और पर्याय कथंचित् एक हैं, सर्वथा भिन्न नहीं, तरिव हेतुना'-अद्वैततके विना रहता ही नहीं, इसमें परिणाम, मंज्ञा, संख्या, विशेष प्रादि हैं। इस प्रकार इत्यादि वाक्योंके द्वारा किया है और साथ ही यह विविध मतोंका खण्डन करके अन्तरङ्ग-बहिरंग तत्त्व, देवप्रतिपादन किया है कि यदि सर्वथा अत का हठ लिया भी पुरुषार्थ, पुण्य-पाप-मानवको मिद्धि कथंचित् अनेकान्तजाय तो बंध-मोक्ष, कर्म-फल, लोक-परलोक विद्या-अविद्या द्वारा की गयी है। और अन्तमें नयोंकी सार्थकता आदि की सारी व्यवस्था झूठ ठहरेगी। इतनी संक्षेपमें तथा योग्य शब्दों द्वारा बतलायी गयी है कि यदि मर्वथा दतवादी, पृथक्त्व एकांत वादी-नैयायिक- एकांतवादियोंकी सारी गुस्थियाँ सहजही सुलझ गई हैं। वैशेषिक और बौद्धका हठ पूरा किया जाय तो उन्हींके जैसे किसम्मत सन्तान-समुदायके लोपका प्रसंग भाजायगा। अपेक्षा तथा निरपेक्षाः नयाः मिथ्या,सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ।' अनपेचा कथञ्चित् है । पारमा सर्वथा कूटस्थनित्य है ऐमा सांख्य, सापेक्ष नयोंका, स्याद्वादका इतना सुक्ष्म सुन्दर, परिका हठ लिया जाय तो पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष, इह-परलोक मार्जित, और मार्मिक वर्णन कहीं भी नहीं मिलेगा। कुछ नहीं बन सकेगा। सर्वथा अनित्य पर्यायवादी बौद्धका इस ग्रन्थको प्रत्येक कारिका सूत्रके समान अर्थ-गौरवसे एकान्त मानेमें हिंस्य-हिंसक और सन्तानक्रम बिगड़ जाते हैं। ठोस भरी है। क्योंकि भागे विद्यानन्द-अकलंक वसुनन्दी उनकी विकल्पोंकी चतुष्कोटि कल्पना भी हवामें उढ़ प्राचार्योंके द्वारा प्रष्टसहस्री, अष्टशती, वृत्ति लिखी जाने पर
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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