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अनेकान्त
वर्ष १३
है-जिनकी महकसे सारा उपवन गूंज उठा है। कुंदकुंद भगवानसे समन्तभद तक तथा उनके पीछे भी अविरोधमात्मवादी, अध्यात्मशील, अनुभूतिशील होनेसे उनका रूपसे प्रविधिन बह रही है। सारा कथन निजात्माकी उसतिके लिये है। समंतभद्र जिनोक सूत्रका प्राश्रय लेकर ही सभी प्राचार्योने अपने समष्टिवादी, प्रचंड तार्किक, और चतुर वाग्मी होनेसे इनका वचन-मणियोंको गूंथा है। यदि यह सूत्र-ढोरा नहीं मिलता सारा कथन सामष्टिक दृष्टिकोणसे हुबा है, कुदकुंद अपना तो इनके द्वारा केवल छिद्र ही छिद्र दिखाई देते आज जो विषय विस्तारसे निरूपण करते हैं, पर समन्तभद्र वही हम वीरशासनकी सुन्दर दृखला बद्ध एकरूपता प्राचीन विषय समास-संक्षेपसे कहते हैं। भ. कुदकुदने अपना कालसे देख रहे हैं वह मायः अशक्य, असम्भव ही हो विषय मुख्यतः पागम जिनाज्ञा, दृढ़ श्रद्धा, तथा अनुभूतिके जाती । (औपचारिक भेद पीछे दिखाया है , सारा जिनबल पर निरूपित किया है । पर समंतभद्र निरे आज्ञाधारी शासन कुन्दकुन्दने सैद्धांतिक, प्राध्यात्मिक दृष्टिकोणसे कहा है ही नहीं थे बदिक वे तो 'परीक्षण' तार्किक थे। इसलिए वही बात समन्तभद्रने तात्विक भूमिका लेकर स्तुतिके बहाने उन्होंने प्रत्येक तत्वकी सिद्धि युक्रिन्याय तथा अनेकांतकी कही है, उनको दृष्टि में तार्क-न्यायसे युक विश्लेषण है।
कसी है। उनके पास पायतुला होनेसे प्रत्येक जिनशासन-प्रतिपादनकी शैली-साधन एवं दोनोंके पास बात संतुलन करके रखी गई है।
अलग अलग थे, पर साध्य दोनोंका एक ही है। इसीलिये कुदकुदने 'आदा' आरमा शब्दको मध्यबिंदु बना कर दृष्टिकोणमें चाहे जितना ही अन्तर क्यों न हो, वह कदापि मानो आत्माके मधुर गीत सुनाए है। किन्तु समन्तभद्रगने मौलिक अन्तर नहीं कहा जाता। और न साध्य भिकाअपनी निर्दोष वाणीके निनादसे परमतके दृढ़ दुर्गों को उबाया स्वतन्त्र कहा जा सकता है । सारा अन्तर विषयकी गौणहै।कुदकुदकी अनुभूति भावना और सम्वेदनाको लेकर मुख्य-दृष्टिसे औपचारिक ही रहता है। क्योंकि दोनों प्राचाउमड़ती है। समन्तभद्रको बुद्धि तर्कनिष्ठ विचारोंका बल योंने 'जिनागमस्य इति संक्षेपः' 'जिनैःरुक्तम्' जिणवरैः लेकर योद्धाके समान खड़ी हो जाती है और स्याबादकी कथितम् , रिणदि8, भणियं आदि वाक्यों द्वारा जिनशासनगर्जनामें मानो एकांतको आवाज सुनाई हो नहीं देती। परम्पराका अनुयायित्व हो प्रकट किया है। दोनों प्राचार्योने
एक महत्वकी बात यह है कि इस प्रकार दोनोंका जिन शासनका मण्डन तथा उसकी सिद्धि करके परमतको इप्टिकोण भिन्न भिन्न ज्ञात होने पर भी दोनोंकी दृष्टि अन्त परास्त किया है। हाँ, इतना भेद अवश्य है कि कुन्दकन्दके में एक ही स्थान पर केंद्रित होती है-वह स्थान है चीर- ग्रंथों में न्याय तर्क अन्तनिहित-भित है-जैसे बादल शासन । हाँ यह बात दूसरी है कि, कुन्दकुन्द जो बात कहीं पानीसे भरे हुए होते हैं। इसके अतिरिक्त वही न्याय समविस्तारसे कहते हैं वही बात समन्तभद संक्षेपसे कहते हैं तभद्र-द्वारा प्रस्फुटित होकर पानीके समान बरसाया गया
और जो कुन्दकुन्द सूत्र रूपेण कहते हैं समन्तभद्र उसोका है, अभिव्यक्त हुआ है । विशिष्ट कालादि परिस्थिति इसका विस्तार करके उसका मूल्य हजार गुना बढ़ा देते हैं। प्टि- कारण है। कोणमें अन्तर इतना ही है कि कुन्दकुन्द निश्चय पर जोर अन्यमतोंका निराकरण करते समय दोनों अपना देकर प्ररूपण करते हैं और समन्तभद्र उसीके पूरक व्यव- अपना तस्व प्रतिपादन करते हैं। परन्तु कुन्दकुन्द 'जिन्हें हारकी सार्थकता न्यायके दृष्टिकोणसे दिखलाते हैं। इस जिनमत मान्य नहीं उन्हें 'मिच्छाइट्ठी' 'अनाहत' कहते हैं। प्रकार कुन्दकुन्दका अध्यात्मिक, निश्चय, शुद्ध दृष्टिकोण है समन्तभद्रकी तार्किकवृत्ति कठोरशब्द-चुनौती है। उन्होंने
और समन्तभदका व्यवहारमय तार्किक न्याय दृष्टिकोण है। चाकको-'प्रारमशिश्नोदरपुष्टितुष्ट' बौद्धको 'विश्रांत परन्तु दोनों का अन्तिम साध्य एक ही है।
दृष्टि' तथा वैदिकको वैतंटिक' आदि विशेषणों-द्वारा गलितदोनों द्वारा प्रतिपादित जिनशासन एक है मान बनाया है। गौण मुख्यका अंतर पाने पर भी दोनों
दोनोंके सामान्य विषय तथा परस्पर विशेषता देखते द्वारा प्रतिपादित जिनशासन एक ही है प्रविरोधी है। साध्य समय दोनोंमें कुछ औपचारिक भेद ज्ञात होता है। यह एक ही होनेसे कथन शैलीको भिन्नता उन्हें अलग अलग औपचारिक भेद कुछ विशिष्ट परिस्थितियों तथा कालादिके नहीं बनाती । इससे जिनशासनका मूल्य बढ़ता ही है। जैसे अनुसार हुआ है । लेकिन जिनशासनकी परम्परा तो महावीर कि एक कविने कहा है