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________________ - - किरण ११-१२] श्री कुंदकुंद और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन [३०७ 'इलोविकाररमपृक्तगुणेन लोके पिष्टाविकांमधुरतांमुपयाति कुन्दकुन्दकी शैली सरज और प्रसादमय है-उपमा, दोनोंकी शैली-विशेषता स्ष्टांतोंका इतना सरल उपयोग और वैपुल्य अन्यत्र स्वचित् ही मिलेगा । उदाहरण के तौर परstyle is the man 'शैली और व्यक्ति मित्र नहीं, ऐसा कहा जाता है। परन्तु इन दोनों प्राचार्योंका १ देहि णिम्मलयरा, भाइच्चेहिं अहियपहा 'सत्ता' व्यक्तित्व इनके ग्रंथों में इतना स्पष्ट नहीं होता जितना कि सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु।। और दूसरे लेखकोंका अपनो काव्य प्रादि कृतियों में देखा सिद्धोंका वर्णन इतना सुन्दर और काम्यमय, सरत जाना है। क्योंकि दोनोंके प्रथ अध्यात्मप्रधान तात्विक और कहाँ है? समन्तभद्रकी शैली तथा भाषा पांडित्यपूर्ण तथा सैद्धांतिक है। लेकिन यहाँ पर स्थूनष्टिसे उनकी है, पर जरा दुरूह और जटिव ज्ञात होती है। भाषा, कथन-पदति शैलीवैशिष्टयका विचार किया जाना है। कुन्दकुन्द अपने कयनमें बार बार 'कर्ष एग? कर्ष इससे दोनों के दृष्टिकोणका अंतर अधिक सट होगा। महा?, कषं होही ऐसे प्रयोग करके प्रश्नका उत्तर पाठकोंक कुन्दकन्दको भाषा प्राकृत ही है। थोडा मा गय भी मुंहसे ही निकाल कर अपने भाव उनके दिल पर अंकित भकिपालों में प्राप्य है। गमिवाय ma करते हैं । पमन्तभद्र भी उदाहरण देकर 'मुरजः किमपेक्षते? समंतभद्रकी भाषा संस्कृत है-उनका गद्य कहीं भा नहीं फसेवते' आदि प्रश्नांक द्वारा समस्याका ममाधान मिलता | वे वस्तुनः कवि थे. उनका संस्कृत भाषा पर कितना पाठ काम हा पाठकोसे हो कग लेते हैं। वे उदाहरण भी बड़े मार्मिक प्रमुन्ध था यह जिनशतककी बंधाचना तथा विविधातोंमे त है। ज्ञात होता है। मंकन भहितान्य नैषधचरितके समान इनकी कदमें ममतभक ममान पौडिन्य, रचना कौशल्य, काव्य-कचा परिमार्जित एवं दुर्बोध है। विद्वत्ता प्रचुरता नहीं दिखती तो भो कुन्दकुन्दको गाथामें कुन्दकुन्द कविप्रकृतिके थे, उनमें कवित्व अभिज्ञान एक तरहको निराली कुशलता प्रगट होती है जैसे किथा-उसे कभी उन्होंने बाह्य छंद, वृत्त, बंध इयादि द्वारा णिण्णहा णिलोमा णिम्मोहा णिग्वियार णिकलुसा। प्रगट करने का प्रयत्न ही नहीं किया । 'सुन्दरमार्ग' का रास्ता णिम्भय णिरासमावा पवज्जा एरिसा भणिया। महज त्रयं उम मार्ग परमे जाने समय बिना प्रायाय दिन प्रत्येक पदका प्रारम्भ एकही प्रवरसे है। इस गाथालाया है। उनका वाणा-प्रवाई शान्त, शातल, मंद-मंद को मधुरता, बढ़ गई है पोर उच्चारणकी मंजुन ध्वनि वायुके ममान बहता है। मानभवको वाणा वोर प्रोसे भरो कानों में गूंजती है । दोनों कथनसे शालीनता, नम्रता और हई हमेशा वादियोंको ललकारनेके लिये तैयार है । ममंतभद्र विनय प्रगट होता है। वे बार बार कहते रहे हैं जो कुछ की प्रवृत्तिमें राजम प्रकृतिका तेज प्रस्फुरित हो रहा है, किंतु मैं कह रहा है, वह न मेरा है. न निरी कल्पना मात्र है। कुन्दकन्दमें सात्विक प्रकृतिको झोंकी है। ममंतभद्रकी वाणी वह सब वीर शामन है 'नवव,' 'तवजिनशासन इदं इन का सिंहनाद सुन कर मारे वादी अपनी निर्बलता, अ-भद्रता शब्दोंसे ममन्तभद्र पुकारते हैं। और कुन्दकुन्द 'मासणं ग्बो देते हैं और एक नरहको समीचीन ममन्तभद्रता-ही हि वोरस्प 'सामणं सव' आदि शब्दोंसे अपना अभिप्राय पाते हैं। प्रकट करते हैं। दोनों प्राचार्योंकी जिनशासन-सेवा तथा लोक-सेवा इन दोनों महान् प्राचार्योंकी शैलीका इस प्रकार सूक्ष्म दोनोंको भाषा सहन स्फूर्त तथा अधिकारी है-उसमें दृष्टिसे अध्ययन किया जा सकता है, परन्तु उनकी शैलीमात्र निजभाव प्रभावित करनेको शक्ति है। दोनोंके साहित्यमें उनकी भव्य-मात्मा नहीं बन सकती। व्यावहारिक दृष्टान्त पानेले समय, समाज, परिस्थितिका संक्षेपमें कुन्दकुन्दकी शैलीमें मरनेका शांत बहना, चाँदप्रतिबिम्ब पाते हैं। जैसे कंदकुद विष-वैद्य, राजा-सेवक, की शीतलता तथा भानफलोंको मधुरता है-जिसका गीत शिल्पिकार प्रादि दृष्टांत जीव-पुद्गल संबंध समझाने के लिये दिन रात सुना जाय, जिसको चन्द्रिकामें कितना ही ममय देते हैं। समंतभद्रने मौलि, कुम्हार, व्रती, राजा, वैध बिताया जाय और जिनका सुस्वाद प्रतिदिन लिया जायजा मादिके दृष्टांत दिये हैं। भी मनुष्य सब नहीं सकता। इसके अतिरिक समन्तभद्रका
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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