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अनेकान्त
[वषे १३
शैलीमें योद्धाकी वीरता, सूर्यको तेजस्विता, तथा सत् शुभ ही अन्य बाज अनेक शतकोंसे अमर हुए हैं। कृत्योंकी प्रखरता अधिक ज्ञात होती है-जिन्हें पाकर कुदकुदकी ज्योतिसे समंतभदने अपनी प्रतिभाकी जीवनमें अदम्य उत्साह प्रगट होता है। अनेकान्त दृष्टिका ज्योति प्रदीप्त की है। श्रद्धासे काम न निभने लगा। वादियोंतेज झलकता है, और एक प्रकारकी कृतकृत्यता पाती है। ने तर्क न्यायका विकास दिखलाकर एक आंदोलन शुरू दोनों आचार्योंकी जिनशासन सेवा तथा लोक सेवा किया था । सिद्धांतको युक्ति प्राप्त तथा आगम कसौटी हो
'सेवाधर्मो परमगहनो योगिनामप्यगम्यः। गयी थी । न्यायके बिना सिद्धान्त अंधा समझा जाने लगा
महान् योगियोंके लिये भी सेवाधर्म प्रसिधाराबत है। था। इसीलिए समन्तभद्रको न्याय-तर्कका आलंबन अनिवार्य ऐसा होने पर भी दोनों प्राचार्योंका जीवनवृक्ष जिनशासन- हो गया । उन्होंने न्याय-तर्क-युक्रिसे प्राप्तकी प्राप्ततत्वोंकी सेवा तथा लोक सेवाके फलोंसे लबालब भरा हमा है। सिद्धि करके वीरशासनकी अमोघ सेवा की है । शासन सेवाका भागम-परम्परा तथा जैनधर्म संस्कृतिका संरक्षण करनेके मूल्यांकन करने में उन्हींक ग्रंथ समर्थ हैंलिये इन्होंने प्रमोल सेवा-योग दिया है-जिसका खास लोक-सेवाप्रमाण उन्हींके अमर ग्रंथ हैं।
दोनों प्राचार्योकी लोक-सेवा अमूल्य है । समयकी लोगों माजसे कोई ढाई हजार वर्ष पहले भ० महावीरने को माँग demand क्या थी, दूसरी तरफ उन्हें विरोधका अपनी सातिशय दिव्य ध्वनिके द्वारा मोक्षका मार्ग बतलाया।
कितना सामना करना था तथा माँगको पूरा और विरोधका उनके निर्वाणके बाद पांच श्रुतकेवली हुए। उनमेंसे भद्रबाहु । सामना करने वालोंके पास योग्यता किस कोटिकी थीअन्तिम श्रुतकेवली थे। उस समय तक द्वादशांग वाणीका इन सब बातों पर उनकी सेवाका दर्जा तथा मूल्य प्रांका प्रवाह निश्चयव्यवहार मार्गरूप अविछिस था। परन्तु आगे जा सकता है । कुन्दकुन्दने अध्यात्मका प्रभाव जनता पर काल तथा परिस्थितिके दोषसे अंगज्ञानकी ब्युच्छित्ति होने
डाला। मुनिधर्म-श्रमणधर्मकी ओर जनताकी प्रवृत्ति झुकाई। लगी और अपार श्रुत-सिंधुका बहुभाग सूम्बने लगा। इस
अध्यात्म रहस्य खोलनेकी चाबी, रत्नत्रय-मार्गका दीप और परंपरामें अपनी बाग्ज्योति जगाने वाले कई प्राचार्य हो गये
श्रद्धाका प्रकाश जनताको दिया है। समयकी माँग जो हैं | प्रा.कुन्दकुन्द भद्रबाहु श्रुतवलीके शिष्य थे-इन्होंने
मुनिधर्म-तत्व-निरूपणकी थी वह सौटक्के पूरी की है । निश्चयभी अपनी ज्योति इसी परंपरासे प्रज्वलित की है।
को मुख्यता देना इसीलिये उन्हें अनिवार्य हो गया। इनकी बीरका सारा शासन तो इन्हें नहीं मिला। परंपरासे
योग्यताका यथार्थ मूल्यांकन आज निष्ठुर कालके श्राघातसे बचा-खुच्चा जो मिला उसीकी सेवा इन्होंने जीवन भर की बचे हुए कतिपय ग्रन्थोंसे नहीं कर सकते। एक ऋद्धिधारी है। भारतके दक्षिण भागमें कर्नाटक-दिगबर-सम्प्रदाय अलग मनि होकर आपने विदह क्षेत्रमें साक्षात् सीमंधर भगवानकी हो रहा था । श्वेताम्बरोंने गुजरातमें प्रागम-प्रभावना अपने
अपन कृपासे प्राप्त हुअा अपना ज्ञान भण्डार हमें रचनाबद्ध करके पंचके अनुसार बढ़ा दी थी देश विभाग-संघात हो रहा था। दिया है। ऐसी हालतमें मूल-मागम परंपराका रहना आवश्यक था। इनकी प्रत्येक कृति लोगोंके लिए एक परमोच्च अवस्थाकुन्दकुन्दने नदिसंघ स्थापन करके उसे अनेक संघोंके साथ मुनि अवस्थाका सन्य आदर्श है। इनकी सेवाका सच्चा एक सूत्रमें बांधनेका काम किया है। ये महान पद्मनन्दी मूल्यांकन इनके ग्रंथों पर टीकाएँ लिखने वाले महान आचार्योप्राचार्य थे जिन्होंने अपने विरोधी कालमें परमागम रूप ने ही किया है। प्राज मोनगढ़की जनता पर इनका गहरा श्रुतस्कन्ध सम्हालनेका उत्तरदायित्व अपने शिर पर लिया था। . प्रभाव ज्ञात हो रहा है । कुन्दकुन्दसे समन्तभद्र तक की रेखा
कुखकरोंके समान वे एक बड़े अन्वयकार थे। इनका सूत्रकारों की है दोनोंकी कड़ियाँ जुटानेवाले उमास्वामी एक स्वतन्त्र अम्बय प्रागेके प्राचार्योंने चलाया। वैदिक प्राचार्य हैं। समन्तभद्रने लोगोंकी सेवा युगप्रवर्तक बनके संप्रदायमें शंकराचार्य माधवाचार्य, रामानुजाचार्य ये सब की है। इनके प्रभावसे गौरव पाने वाले प्राचार्योने कहा है अपनी भागम-वेद परम्परा स्थिर करनेमें लीन थे। ऐसी कि जब प्रचण्डवादी समन्तभद्र वादियोंके बीच भात, तब हालतमें कुन्दकुन्दने भी भ. महावीरसे चली आई श्रत- कुवादिजन नोचा मुख करके अंगूठेसे पृथ्वी कुरेदने लग जाते! परम्पराकी रक्षा वृद्धि भपनी कृतियाँ लिपिबद्ध करके की है। इनके सामने प्रवादिरूपी पर्वत चूर-चूर हो जाते थे। समस्त