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किरण ५]
अपभ्रंश भाषाका जंबूसामिचरिउ और महाकवि वीर नहीं थे, बल्कि भक्तिरसके भी प्रेमी थे इन्होंने मेषवना में कालको उत्पत्ति होती है और विक्रमकालके १०७६ वर्ष पत्थरका एक विशाल जिनमन्दिर बनवाया था और उसी व्यतीत होने पर माघ शुक्ला दशमीके दिन इस जम्बुस्वामी मेघवन पट्टणमें बईमान जिनकी विशाल प्रनिमाकी प्रतिष्ठा चरित्रका प्राचार्य परम्परासे सुने हुए बहुलार्थक प्रशस्त भी की थी२ । कविने प्रशस्तिमें मन्दिर-निर्माण और प्रतिमा- पदों में संकलित कर उद्धार किया गया है। जैसा कि ग्रन्थप्रतिष्ठाके संवतादिका कोई उल्लेख नहीं किया । फिरभी प्रशस्तिके निम्न पद्यसे प्रकट है:इतनातो निश्चित ही है कि जम्बू-स्वामि-चरित ग्रंथको रचन' रिसाण सयचउक्के सत्तरिजुत्ते जिणेंदवीरस्स। से पूर्वही उन दोनों कार्य सम्पन्न हो चुके थे।
णियाणा उववरणा विक्कमकालस्स उप्पत्ती॥१॥ पूर्ववर्ती विद्वानोंका उल्लेख
विक्कमणिवकालाओ छाहत्तर दससएसु वरिसाणं। ग्रन्थमें कविने अपनेसे पूर्ववर्ती निम्न विद्वान कवियोंका माहम्मि सुद्धपक्ख दसमी दिवसम्मि संतम्मि ॥२॥ उल्लेख किया है, शान्तिकवि३ होते हुए भी वादीन्द्र थे और सुणियं आयरिय परंपराए वीरेण वीरणिढ़ि। जयकविः जिनका पूरा नाम जयदेव मालूम होता है, जिनकी बहुलत्थ पसत्थपयं पचरमिणं चरियमुद्धरियं ॥३॥ वाणी अदृष्ट अपर्व अर्थमें स्फुरित होती है।
इस प्रकार यह ग्रन्थ जीवन-परिचयके साथ-साथ अनेक यह जयकवि वही मालूम होते हैं, जिनका उल्लेख जय- महत्वपूर्ण एतिहामिक व्यक्रियोंके उल्लेखों और उनके कौनिने अपने छन्दानुशासनमें किया है। इनके सिवाय, सामान्य परिचयोंसे परिपूर्ण है। इससे भगवान महावीर स्वयंभूदेव, पुष्पदन्त और देवदत्तका भी उल्लेख किया है। और उनके समकालीन व्यनियोंका परिचय उपलब्ध होता ग्रन्थका रचनाकाल
है, जो इतिहासज्ञों और अन्वेषण-कर्ताओंके लिये बड़ा हो भगवान महावीर के निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात विक्रम- उपयोगी होगा। प्रयत्न करने परभी 'मेघवन' का कोई विशेष परिचय ग्रन्थका लिपि समय उपलब्ध नहीं हो सका।
यह ग्रन्थ-प्रति भहारक महेन्द्रकीर्ति अम्बेर या भामेर २ सो जयउ कई वीरो वीरजिणंदम्म कारियं जेण ।
(जयपुर ) के शास्त्रभंडार की है, जो पहले किसी समय पाहाणमयं भवणं विइरूहेसेण मेहवणे ॥१०॥
जयपुर राज्यकी राजधानी थी । इस प्रतिको लेखक-प्रशस्तिके इन्थेवदिणे मेहवणपणे वाढमाण जिणपडिमा।
तीन ही पद्य उपलब्ध है; क्योंकि ७६, पत्रसे भागेका तणा वि महाकइणा वीरेण पट्टिया पवरा ॥५॥
७७वां पत्र उपलब्ध नहीं है। उन पद्योंमेंसे प्रथम व द्वितीय जबूम्वामि चरित प्रा।
पद्यमें प्रतिलिपिक स्थानका नाम-निर्देश करते हुए 'मुमुना' ३ मंति कई वाई बिहु वएणुरिसेपु फुस्थिविण्णाणो ।
के उत्तुंग जिन-मन्दिरोंका भी उल्लेख किया है और तृतीय रस-सिद्धि मंचियस्था विरलो वाई कई एक्को ॥३॥
पद्यमें उसका लिपि ममय विक्रम संवत् १५१६ मगसिर ४ विजयन्तु जए कइणो जाणंवाणं अइ पुब्बस्थे ।
शुक्ला त्रयोदशी बतलाया है, जिससे यह प्रनि पांच सौ उज्जोइय धरणियलो साहइ वहिव्व मिव्ववडई ॥४॥
वर्षके लगभग पुरानी जान पड़ती है । इस ग्रन्थ प्रति पर जम्बूम्वामी-चरित प्रशस्ति
एक छोटा सा टिप्पण भी उपलब्ध है जिसमें उसका मध्य५ माण्डव्य-पिंगल-जनाश्रय-सेतवाख्य,
भाग कुछ छूटा हुआ है। श्रीपूज्यपाद-जयदेव बुधादिकानाम् । छन्दामि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान्
ॐ मन्ये वयं पुण्यपुरी बभाति, सा झुझणेति प्रकटी बभूव । छंदोनुशासनमिदं जयकीतिनोत्रम् ॥
प्रोत्तुगतन्मंडन-चैत्यगेहाः सोपानवदृश्यति नाकलोके ॥१॥ -जैसलमेर-भण्डार प्रन्थमूची पुरस्मराराम जलप्रकृपा हाणि तत्रास्ति रतीव रम्याः। संते सयंभू पए वे एक्को कइत्ति विधि पुणु भणिया। श्यन्ति लोका घनपुण्यभाजो ददातिदानस्य विशालशाजार जायम्मि पुप्फयंते तिरिण नहा देवयत्तम्मि॥ श्री विक्रमार्केन गते शताब्दे षडेक पंचक सुमार्गशीर्षे। -देखो, जंबूस्वामि चरित, संधि का प्रादिभाग। त्रयोदशीया तिथिसर्वशुद्धाः श्रीजंबूस्वामीति च पुस्तकोऽयं ॥३