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________________ भारतकी राजधानीमें जयधवल महाधवल ग्रन्थराजोंका अपूर्व स्वागत श्री जयधवल महाधवल ग्रन्थराजोंकी मूल ताब- ग्लास केशके दोनों ओर सामने चाँदीके सुन्दर अष्ट पत्रीय प्रतियां जो तुलु या तौलब देश में स्थित मूडबिद्रीके मंगल द्रव्य रक्खे गये थे और चाँदीके बड़े गुलदस्ते मठसे कहीं बाहर नहीं जाती थी और जिन्हें श्रीअण्णा जिनमें विविध प्रकारके फूल खिल रहे थे। मन्दिरके श्रेष्ठी तथा श्रीमती मल्लिकादेवी द्वारा अपने पंचमी चारों ओर सुन्दर पुष्प मालाएं लटक रही थी और व्रतके उद्यापनार्थ लिखवाकर श्री मेषचन्द्रव्रतीके शिष्य चार घंटे भी बंधे हुए थे जो अपनी आवाजसे दर्शकोंश्री माधनन्दी आचार्यको समर्पित किये गये थे और को अपनी ओर केवल आकर्षित हो नहीं करते थे जो हजार वर्षके लगभग समयसे वहां सुरक्षित थीं अपितु उनका आह्वानन भी कर रहे थे। सरस्वती उन्हें बीरसेवामन्दिरके अध्यक्ष श्रीबाबू छोटेलाल जी मन्दिरको यह शोभा देखते ही बनती थी। यह सब उन कलकत्ताकी सत्प्रेरणा एवं अनुरोधसे उनका जीर्णोद्धार प्रन्थराजोंका ही महात्म्य एवं प्रभाव था इस रथोत्सवमें करानेके लिए देहली लाया गया, जो ता०८ दिसम्बर सबकी दृष्टि इस नूतन बने हुए सरस्वती मन्दिरकी की रातको जनता एक्सप्रेससे दिल्ली पहुँची। उस ओर जाती थी, जो दर्शकोंके लिये अभिनव या अपूर्व समय देहलीके रेल्वे स्टेशनपर स्थानीय प्रतिष्ठित वस्तु थी। जयधवल और महाधवल ग्रन्थराजोंकी जयसजनों ने उनका स्वागत किया, मालाएं पहिनाई। ध्वनिसे अम्बर गूंज रहा था। उक्त मन्दिरके दोनों उक्त जनता एक्सप्रेसके । घण्टे लेट हो जानेके कारण ओर अगल बगल में एक तरफ श्री धर्मसाम्राज्य जी जुल्स आदि की सब योजना रोक देनी पड़ी और और पं० मक्खनलालजी प्रचारक तथा दूसरी ओर उन ग्रन्थराजोंको श्री धर्मसाम्राज्यजीके साथ कारमें प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान पं० जुगलकिशोर जी पं० लाकर श्री दि० जैन लाल मंदिर स्थित वीरसवामन्दिरमें परमानन्द शास्त्री और उनका लघु पुत्र गुलाबचन्द् विराजमान किया। भी बठा हुआ था। पं० मक्खनलाल जी, मुख्तार सा. भारतकी राजधानी दिल्ली में पौषवदी दोयज और मैं, बारी २ से उक्त जयधवलादि इन ग्रन्थोंका रविवार ता० १२ दिसम्बर को जैनियोंके वार्षिक रथो- परिचय भी कराते जाते थे। सक्के पुनोत अवसरपर एक विशाल ठेलेपर जिसका ग्रन्थ परिचय में इन ग्रन्थराजोंकी उत्पत्ति का और संचालन टेक्टरके द्वारा होता है, उसपर प्राचीन कारी- कैसे हुई ? इनके रचयिता कौन थे, इनकी भाषा और गिरी को लपमें रखते हुए एक नवीन सरस्वती मन्दिर- लिपि क्या है, इनका रचनाकाल क्या है और इनमें का निर्माण किया गया था और उसे विविध प्रकारसे किन-किन विषयोंका कथन दिया हुआ है और इन सुसज्जित किया गया था। सरस्वती मन्दिरके मुख्य प्रन्थोंके अध्ययनसे हम क्या लाभ है ? आदि प्रश्नोंका द्वारपर एक सुन्दर बोर्ड लगा हुआ था, जिसपर भगवान संक्षिप्त एवं सरल रूपसे विवेचन लाउड स्पीकर द्वारा महावीरका दिव्य सन्देश 'जियो और जीने दो' अंकित किया जा रहा था। था । इस मन्दिरमें दोनों ओर सोने-चाँदीकी सुन्दर जिनेन्द्र भगवानका अश्वारोही रथ भी अपनी दो वेदियाँ विराजमान की गई थी। ऊपरके सफेद अनुपम छठा दिखा रहा था और दर्शकजन नमस्कार चंदोये के नीचे मनोहर जरीदोज चंदोयके मध्यमें कर अपने कर्तव्यको जाननेक मार्गमें लग रहे थे। सुवर्णके बड़े तीन छत्र फिर रहे थे और बगलोंमें रथोत्सवमें अजमेरकी प्रसिद्ध भजन मण्डली भी इन्द्रचमर डोल रहे थे। चंदोयेके ठीक मध्यमें नीचे बुलाई गई थी जो नृत्य वादित्रादिके साथ जिनेन्द्रके सुन्दर ग्लास केशमें विराजमान उक्त ग्रंथराज दूरसे ही गुणगान कर रही थी। श्री जैनयुवकमण्डल सेठके दृष्टिगोचर होते थे । उक्त ग्लासकेशके अंदर और बाहर कृचाकी नाटक मंडलीने भी अपनी अभिनय रुचिके चारों ओर नया मंदिर धर्मपुरा और पंचायती मंदिरके साथ ठेलेको सजाया था और उसके अन्दर ड्रामाका शास्त्र भंडारोंके अन्य सचित्र, सुवर्णाहित ग्रन्थोंको अभिनय दर्शनीय रूप में किया जा रहा था। कहा जाता भी विराजमान किया गया था जो दर्शकोंके हृदयमें है कि रथोत्सवमें इतनी अधिक भीड़ पहले कभी आनन्द और उत्साहकी लहर उद्भावित कर रहे थे। नहीं हुई।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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