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विद्वान और कवि थे । इनकी चार स्त्रियाँ थीं । जिनवती, पोमावती, लीलावती और जयादेवी तथा नेमचन्द्र नामका एक पुत्र भी थार । महाकवि वार विद्वान और कवि होनेके साथ-साथ गुणग्राही न्याय-प्रिय और समुदार व्यक्ति थे । उनकी गुणग्राहकताका स्पष्ट उल्लेख ग्रन्थकी चतुर्थ सन्धि के प्रारम्भमें पाये जाने वाले निम्न पद्यसे मिलता है :अगुणा ण मुणंति गुणं गुणणो न सर्हति परगुणे दट्ठ' । लहगुणा व गुणणो विरलाकइ वीर - सारिच्छा |
अनेकान्त
अर्थात् - " गुण अथवा निर्गुण पुरुष गुणोंको नहीं जानता और गुणीजन दूसरेके गुणों को भी नहीं देखतेउन्हें सहन भी नहीं कर सकते, परन्तु वीरकविके सदृश कवि विरले हैं, जो दूसरे गुणों को समादरको दृष्टिसे देखते हैं ।'
कविने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए लिखा है कि" सुकवित्त करणमणघावडे - १ - ३ । इसमें कविने अपनेको काव्य बनानेके अयोग्य बतलाया है। फिर भी कविने अपनी सामर्थ्यानुसार काव्यको सरस और सालंकार बनानेका यत्न किया है। और कषि उसमें सफल हुआ है कविका वंश और माता-पिता
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जा सकता है। इनके पिताका नाम देवदत्त था । यह 'महाकवि' विशेषणले भूषित थे और सम्यक्त्वादि गुणोंसे अलंकृत थे। और उन्हें सरस्वति देवीका वर प्राप्त था । उन्होंने पद्धदिया छन्दमें 'वरांग- चरित' का उद्धार किया था । और कविगुणोंको अनुरंजित करनेवाली वीरकथा, तथा 'अम्बादेवीरास' नाम की रचना बनाई थी, जो ताल और लयके साथ गाई जाती थी, और जिनचरणोंके समीप नृत्य किया जाता था। जैसा कि कविके निम्न वाक्योंसे प्रकट है। -- “सिरिलाडवग्गुतहिविमल जसु, कइदेवयत्तु निव्वुड्ढकसु बहुभावहिं जें वर्गचरिउ, पद्धडिया बंधे उद्धरिउ ।
विगु-रस-रंजिय विउससह, वित्त्यारिय सुद्दयवीरकह तच्चरिय बंधि विरइउ सरसु, गाइज्जइ संतिउ तारूजसु नचिज्ज जिपयसेवयहिं किउ रासउ अंबा देवयहिं । सम्मत्त महाभरघुरधरहो, तो सरसइदेवि-लद्भवरहो ॥”
कविवर देवदत्तकी ये सब कृतियां इस समय अनुपलब्ध हैं, यदि किसी शास्त्रभंडारमें इनके अस्तित्वका पता चल जाय, तो उससे कई ऐतिहासिक गुत्थियोंके सुलझनेकी श्राशा है कविवर देवदत्तकी ये सब कृतियों संभवतः १०५० या इसके आस-पास रची गई होंगीं, क्योंकि उनके पुत्र वीर कवि सं० १०७६ के ग्रन्थ में उनका उल्लेख कर रहे हैं । अतः इनकी खोजका प्रयत्न होना चाहिए, सम्भव है प्रयत्न करने पर किसी शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हो जांय । वीरकविकी माताका नाम 'सन्तु' अथवा 'सन्तुव' था, जो शीलगुणसे अलंकृत थी। इनके तीन लघुमहोदर और थे जो बड़े ही बुद्धिमान् थे और जिनके नाम 'सीहल्ल' लक्खणंक, और जसई थे, जैसा कि प्रशस्तिके निम्नपद्योंसे प्रकट है :
कविवर वीरके पिता गुडखेडदेशके निवासी थे और इनका वंश अथवा गोत्र 'लालबागड' था । यह वंश काष्ठासंघकी एक शाखा है । इस वंश में अनेक दिगम्बराचार्य और भट्टारक हुए हैं, जैसे जयसेन, गुणाकरसेन, और महासेनx तथा सं० ११४५के दूबकुण्ड वाले शिलालेखमें उल्लिखिन देवसेन आदि । इससे इस वंशकी प्रतिष्ठाका अनुमान किया २ जाया जस्स मणिट्टा जिणवद्द पोमावइ पुगो बीया ।
लीलावइति तईया पच्छिम भज्जा जयादेवी ॥ ८ ॥ पढमकलतं गरुहा संताण कयत्त विडवि पा रोहो । विण्यगुणमणिहाणां तराश्र तह ऐमिचन्दो ति ॥६॥ — जंबूस्वामीश्चरित प्रशस्ति काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः । अत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्तं विश्रुता क्षितौ || श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुराबागडाभिधः । लाड वागड इत्येते विख्याता क्षितिमण्डले । — पट्टावली भ० सुरेन्द्र कीर्ति । x देखो, महासेन प्रद्युम्नचरित प्रशस्ति जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह प्रथम भाग वीरसेवा मन्दिरसे प्रकाशित |
जरस कइ देवयत्तो जयो सच्चरियलद्धमाइयो । सुहसीलसुद्धवंसो जरणी सिरि संतुया भरिया || ६ || जम्स य पसरणवयरणा लहुरंगी सुमइ ससहोयरा तिरि । सीहल्ल लक्खणंका जसइ णामेत्ति विक्खामा ||७|
चूंकि कविवर वीरका बहुतसा समय राज्यकार्य, धर्म. थे और कामकी गोष्टीमें व्यतीत होता था, इस लिए इन्हें इस जम्बूस्वामी चरित नामक ग्रंथके निर्माण करनेमें पूरा एक वर्षका समय लग गया था १ । कवि 'वीर' केवल कवि हो
१ बहुरायकज्जधम्मत्थकाम गोट्ठी विद्दत्तसमयस्स । वीरस्स चरियकरणे इक्को संघच्छरो लग्गो ॥५॥
जंबू० च० प्र०