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अनेकान्त
। वर्ष १३ धर्मका नहीं; जैसा कि तत्वार्थश्लोकवातिकके निम्न वाक्य किया है. प्रत्युत इसके उन्होंने अनेक प्रकारसे उनका से प्रकट है:
विधान किया है। ऐसे चोटीके महान् प्राचार्यों को भी _ "मर्वातिशायि तत्पुण्यं त्रैलोक्याधिपतित्वकृत्" "लौकिकान" तथा "अभ्यमती' बतलाना दु:साहम की
ऐसी हालनमें कानजी स्वामीका पूजा-दान तथा व्रता. ही नहीं, किन्तु पृष्टता की भी रद हो जाती है। प्रेमी दिकको धर्मकी कोटिसे निकाल कर यह कहना कि उनका अविचारित एवं बेतुकी वचनावली शिष्टजनोंको बहुत ही करना धर्म नहीं और इसके लिये जैनमत तथा जिनेन्द्र प्रखरतो तथा असह्य जान पड़ती है। भगवानकी दुहाई देते हुए यह प्रतिपादन करना कि जिन कुन्दकुन्दाचार्यका कानजी स्वामी सबसे अधिक 'जैनमन में जिनेश्वर भगवान्ने व्रत-पूजादिकके शुभ भावोंको दम भरते हैं और उन्हें अपना भागध्य गुरुदेव बतलाते हैं धर्म नहीं कहा है-मात्माके वीतरागभावको ही धर्म वे भी जब पूजा दान-व्रतादिकका धर्मके रूपमें स्पष्ट विधान कहा है।।' कितना असगत तथा वस्तुस्थितिके करते हैं तब अपने उक वाग्वाणोंको चलाते हुए उन्हे कुछ विरुद्ध है. उमे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। प्रागा पीछा सोचना चाहिए था । क्या उन्हें यह समझ में तो यहां सिर्फ इतना ही कहूँगा कि यह सब कथन जिन- नहीं पड़ा कि इससे दूसरे महान् प्राचार्य ही नहीं, किन्न शासनके एकांगी प्रवलोकन अथवा उसके स्वरूप विषयक उनके पाराध्य गुरुदेव भी निशाना बने जा रहे हैं? अधूरे एवं विकृत ज्ञानका परिणाम है। जब भी कुन्दकुन्द
यहां पर मैं इतना और भी बतजा देना चाहता हूँ कि तथा स्वामी समन्तभद्र जैसे महान् एवं पुरातन याचार्य,
श्री कुन्दकुन्दाचार्यने शुद्धोपयोगी तथा शुभोपयोगी दोनों जो कि जैनधर्मके आधारस्तम्भ माने जाते है, पूजा-दान
प्रकारक श्रमणों (मुनियों) को जैनधर्म-सम्मतमाना है। जिनबनाना
मेसे एक अनास्रवी और दूसरा सास्रवी हाता है, वहन्तादिमे जिनेश्वरदेवका वह कौनसा वाक्य हो सकता है जो धर्म भक्ति और प्रवचनाभियुक्तोंमें वत्सलताको मुनियोंकी रूपमें इन क्रियाओंका सर्वथा उस्थापन करता हो कोई
शुभचर्या बतलाया है; शुन्द्वोपयोगी श्रमणों के प्रति वन्दन. भी नहीं हो सकता। शायद इसीसे वह प्रमाण में उपस्थित नमस्करण, अभ्युस्थान और अनुगमन द्वारा भादर-सत्कार नहीं किया जा सका । इतने पर भी जो विद्वान् प्राचार्य
की प्रवृत्तिको, जो मन शुद्धामवृत्ति के संत्राणको निमित्त. पूजा-दान · वनादिकको 'धर्म' प्रतिपादन करते हैं उन्हें
भूत होती है, सरागचारित्रकी दशामें मुनियोंकी चर्याम "लौकिक जन" तथा "अन्यमतो" तक कहनेका दुःसाहस
सम्यग्दर्शन-ज्ञानके उपदेश, शिष्य के ग्रहण-पोषण और किया गया है, यह बड़ा ही चिन्ताका विषय है। इस
जिनेन्द्र पूजाके उपदेशको भी विहित बतलाया है। साथ विषयमें कानजी महाराजके शब्द इस प्रकार हैं:
ही यह भी बतलाया है कि जो मुनि काय विराधनासे "कोई कोई लौकिकजन तथा अन्यमती कहते है कि पूजा
रहित हुमा नित्य ही चातुर्वर्ण्य श्रमण संघका उपकार दिक तथा व्रत-क्रिया पहित हो वह जैनधर्म है; परन्तु ऐसा
करता है वह रागकी प्रधानताको लिए हुए श्रमण होता
है, परन्तु वयावृस्यम उद्यमी हुमा मुनि यदि काय-खेदको नहीं है। देखो, जो जीव पजादिके शुभरागको धर्म मानते है, उन्हें "लौकिक जन" और "मन्यमती"
धारण करता है तो वह श्रमण नहीं रहता, किन्तु कहा है"।
गृहस्थ (श्रावक) बन जाता है। क्योंकि उस रूपमे
वैयावृत्य करना श्रावकोंका धर्म है। जैसा कि प्रवचनकार इन शब्दोंकी जपेट में, जाने-अनजाने, श्रीकुन्द-कुन्द
र की निम्न गाथानोंसे प्रकट है:समन्तभद्र उमास्वाति, सिद्धसेन. पूज्यपाद. प्रकलंक और विद्यानन्दादि सभी महान् प्राचार्य मा जाते हैं, क्योंकि
समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होति समयम्हि।
तेसु वि सुद्धवजुत्ता प्रणासवा सासवा सेसा ।।-४५|| उनमें से किसी ने भी शुभभावोंका जैनधर्म में निषेध नहीं
_ अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । -------- -- -- - - -- -- -- -. .-.. - सापक
श्रीकानजी स्वामीकी सोनगढीय संस्थासे प्रकाशित विजदि जदि सामरणे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ४६|| समयसार (गुटका) में भी धर्मका अर्थ 'पुण्य किया है। वंदण-णमसणेहि अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती। (देखो गाथा २१.१.१५७)
समणेमु समावण ओण णिदिदा रायचरियम्हि ||-४॥