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________________ २३८] अनेकान्त [ वर्षे १३ - - उमत और अवनत बनाता है। तत्वदृष्टिसे आत्माका गुरु जैसे बांका और दमरे अस्त्र-शस्त्रोंका निर्माण हो रहा है, आत्मा ही है। अपरिग्रह-परिग्रह परिमाण अथवा अपरिग्रहवत जिनक भयसे दुनिया मंत्रस्त है, भयभीत है। यदि दुनियाके लोग अपनी आशाओंको मीमित बना लें और गम्राज्यवादविश्वशांतिका अमोघ उपाय है। ममत्व परिणामका नाम ही परिग्रह है। परिग्रह रागद्वेषकी उत्पत्तिमें कारण है, और की अनुचित अभिवृद्धिको लोलुपताको कम कर , जिम्मकी. गगढेषका उत्पन्न होना हिंमा है परिग्रहसे हिंसा होती है। चाह-दाहकी भीषण ज्वालासे मारक मानव मुलम रहे अतः अहिंसक जीवके लिए परिग्रहका परिमाण कर लेना है-परिप्रहकी अपार नृणामें जल रहे हैं और उसकी श्रेयस्कर है, परन्तु जो मनुष्य परिप्रहका पूर्ण व्याग नहीं कर पूनिके लिये अनेक प्रयत्न किये जाते हैं और जिम्मकी अपर्णता सकता वह गृहस्थ अवस्थामें रहकर न्यायसे धनादि सम्पत्ति- जीवनमें 'द मचा रही है. अमनुष्ट और अशांन बना रही का अर्जन एव' संग्रह करे । परन्तु उसके लिए उसे उतने ही है, वह सब अशान्ति परिग्रहका परिमाण करने अथवा अपनी प्रयत्नकी जरूरत है जितनसे उमकी आवश्यकताओंकी पति इच्छाओं पर नियंत्रण करनेमे जीवनमें होने वाली भारी प्रासानीस हो सकती हो। अतः गृहस्थके लिए परिग्रहका अशान्तिसे महज ही बच सकते हैं और परस्परकी विषमता प्रमाण करना आवश्यक है, उमस वह अनेक संघर्षोसे अपनी भी दूर हो सकती है। भगवान महावीरका यह सुन्दर रक्षा कर सकता है। मुनि चूंकि परिग्रह रहित होने हैं अतः सिद्धान्त मानव जीवनक लिय कितना उपयोगी है और उन्हें अपरिग्रहो एवं अतिचिन कहा जाता है। वास्तवमें उसमे जीवन कितना सुम्बी बन सकता है यह अनुभव और यदि विचार कर देखा जाय तो संसारक सभी अनर्थोका मृल मनन करनेको वस्तु है । यदि सभी दश महावीरके कारण परिग्रह अथवा साम्राज्यवादकी लिप्मा है । इसके लिए इस अपरिग्रह मिन्द्वान्तका उचित रीतिसे पालन करनेका एक राष्ट्र मरे राष्ट्रको निगलन एवं हडपनेकी कोशिश व्रत करें तो फिर विश्वमें कभी अशान्ति हो नहीं करता है अन्यथा विभूतिके मंग्रहकी अनुचित अभिलाषाके मकती और न फिर उन अस्त्र-शस्त्रोंक निर्माणको हो बिना रक्तपात होनेकी कोई सम्भावना ही नहीं है। क्योंकि जरूरत रह जाती है। अतः समाजको भगवान महावीरक अनर्थोंका मूलकारण लोभ अथवा स्त्री, राज्य और वैभवकी इन सुनहले सिद्धान्तों पर स्वयं अमल करना चाहिये। सम्प्राप्ति है। इनके लाभ ही महाभारत जैसे काण्ड हुये है, साथ ही मंगठन महन-शीलता तथा वात्सल्यका अनुसरण आज भी विश्वकी अशांतिका कारण साम्राज्यवादको लिज्मा, करते हुए उन सिद्धान्तोंका प्रचार व प्रसार करनेका प्रयत्न वश प्रतिष्ठादि हैं उसीके लिए परमाणुबम और उदजन बम करना चाहिए । जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंको लिए हुये है। ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों परसे नोट कर संशोधनके साथ प्रकाशित की गई हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण महत्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत है, जिसमें १०४ विद्वानों, प्राचार्यों और भट्टारकों तथा उनकी प्रकाशित रचनाओंका परिचय दिया गया है जो रिसर्चस्कालरों और इतिहास संशोधकोंके लिये बहुत उपयोगी है। मृन्य ४) रुपया है। ___. मैनेजर वीरसेवा-मन्दिर जैन लाल मन्दिर, चाँदनी चौक, देहली.
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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