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________________ किरण ] भगवान महावीर चचल तरंगें न उठती हों जो सहिष्णु एवं क्षमाशील है, पाठ पढ़ाया है। परन्तु जैनी अहिंसाका पालन वही शासन सर्वोदयतीर्थ कहला सकता है और उसीमें कायर पुरुषसे नहीं हो सकता । अात्मनिर्भयी, इन्द्रियविजयी विश्ववन्धुन्चकी कल्याणकारी भावना भी अन्तनिहित होती सदृष्टि मनुष्य ही उसका यथेष्ट रीत्या पालक हो सकता है। है। वहीं शामन विश्व समस्त प्राणियोंका हितकारी धर्म अहिंमा जीवका निज म्वभाव है, यदि वह जीवका निज स्वहो सकता है । तथा जिमकी उपमना एवं भक्रिम अभद्रता भाव न होता तो मानव समृहरूपमें हम एक स्थान पर बैठ भी भी भगतामें परिणत हो जाती हो वही शासन विश्वमें नहीं सकते थे। कमाई हिमक होते हुए भी अपने बच्चों श्रेयस्कर हो सकता है। और स्त्री प्रादिस प्रेम करता ही है। इससे स्पष्ट है कि भगवानके शासन-सिद्धान्त बड़े ही गम्भीर और समुदार अहिसा जीवनका निज म्वभाव है। और क्रोधादि परिणाम है वे मैत्री प्रमोद कारुण्य और मध्यस्थताको भावनाओंस जीव विभाव हैं हिमा जनक हैं। श्रोत-प्रोत है, उनसे मानव-जीवनके विकासका खाम-सम्बन्ध अनकान्त-दुसरा सिद्धान्त अनेकान्त है, जिसका है उनके नाम हैं अहिंसा, अनेकान्त या स्याद्वाद, स्वतंत्रता अर्थ है। अनेक धर्मवाला पदार्थ । अन्त शब्दका अर्थ और अपरिग्रह। ये सभी सिद्धान्त बड़े ही मूल्यवान हैं। धर्म या गुण है। प्रत्येक पदार्थमें अनेक धर्म रहते हैं। क्योकि इनका मूलरूप अहिंसा है। उन सभी धर्मोका योग्य समन्वयक साथ अस्तित्व अहिंसा-वार शामनमें अहिसाकी जो परिभाषा बत- प्रतिपादन करना ही अनकान्त कहलाता है। अनेकान्तकी लाई गई है वह अन्यत्र नहीं मिलती। उसमें केवल प्राणी- यह ग्वाम विशेषता है कि वह दुनियावी विरोधों वधका न होना अहिंसा नहीं है किन्तु अपने अभिप्रायमें भी को पचा सकता है-उनका समन्वय कर सकता है तथा किसीको मारने, मताने, दुःखी करने जमा कोई भी दुष्कृत उनकी विषमता को दूर करता हश्रा उनमें अभिनव मैत्रीका विचार का न होना अहिसा है। श्रान्मामें राग, दोपोंकी संचार भी कर सकता है अनेकान्त जीवनके प्रत्येक क्षणमें उत्पत्तिका न होना अहिमा है और उनकी उत्पत्तिका नाम काम पाने वाला सिद्धान्त है। इस विना जीवन में एक f:मा है । वीर शापनमें अहिमाके दर्जे व दर्जे क्रमिक विकास समय भी काम नहीं चल सकता । यदि इसे वास्तरिक रीति का मौलिक रूप विद्यमान है जिनमें अहिमाको जीवनमें से जीवनमें घटित कर लिया जाय, तो फिर हमारे दैनिक उतारनेका बडा ही सरल तरीका बतलाया गया है। माथही जीवनमें आनेवाली कठिनाइयों या विषमताका कभी अनुभव उमकी व्यवहारिकता उपयोगिता और महत्ताका भी उल्लेख गिता भार महत्ताका भी उल्लेख नहीं हो सकता। हमारा व्यवहार जबसे एकान्निक हो जाता किया गया है । जिसपर चलनेस जीवात्मा परमात्मा बन नब वह विषमता कारण बन जाता है. अत: हमें अपने सकता है। भगवान महावीरने बतलाया कि संमारक मभी व्यवहारको अनेकान्तकी सीमाकं अन्दर रग्बने हुए प्रवृत्ति जीवों को अपने प्राण प्यार हैं कोई भी जीव मरना नहीं करनी चाहिये। चाहता । सब सुख चाहते है और दुग्खसे डरते हैं। अतः हमें स्वतन्त्रता-वीर शासनका नीसंग सिद्धान्त स्वतन्त्रता अपने जीवन में ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिये जिसस है। भारतके दूसरे धर्मोमें जहाँ जीवको परतन्त्र माना जाता दृयरोंको दुख या कष्ट पहुंचे। क्योंकि दुर्भावका नाम हिंमा है-उसके सुखदुःखादि सभी कार्य ईश्वरके प्रयन्न एवं इच्छा है, ऋरता है, पाप है। कायरता या बुजदिली हिंसाकी जननी से सम्पन्न होते बतलाए जाते हैं, वहाँ वीर शासनमें जीवको है। अहिंसा जीवन प्रदायिनी शक्रि है उससे प्रात्मबलकी स्वतन्त्र माना है-वह सुखदुःव अच्छे या बुरे कार्योको वृद्धि होती है। मानवताके साथ नैतिक चरित्रमें भी प्रतिष्ठा अपनी इच्छासे करता और उनका फल भी स्वयं भोगता और बलका संचार होता है तथा मानव सत्यताकी और है। वीर शासनमें द्रव्यदृष्टिस (जीवत्व की अपेक्षास) सभी अग्रसर होने लगता है, उपक मनमें स्वार्थ-वासना और विषय जीव समान है। परन्तु पर्याय दृष्टिस उनमें राजा रंक श्रादि लालुपना जैसी दुर्भावनाएं बाधक नहीं हो सकतीं। गांधीजी भेद हो जाते हैं । इस भेदका कारण जीवोंके द्वारा समुपार्जित महावीरकी अहिमा और सन्यकी एक देश निष्ठास ही स्वकीय पुण्य-पाप कर्म है । उसके अनुसार ही जीव अच्छीमहात्मा बने हैं। महावीरक बाद उन्होंने राजनीतिमें बुरी पर्याय प्राप्त करता हैं और उनमे अपने कर्मानुसार भी अहिंसाका प्रयोग करके जगतको उसकी महत्ताका सुख-दुखका अनुभव करता है। जीवात्मा स्वयं ही अपनेको
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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