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________________ १८२ अनेकान्त वि५५७ हो जाते हैं और भूमध्य रेखा पर बहुत दूर। भी प्रोजेक्शन प्रसिद्ध है किन्तु वे सब भी दोषपूर्ण है। (४) प्रार्थोग्राफिक प्रोजेक्शन-इसमें कक्शेके बीचका किमी क्षेत्रफल, किसी में आकार और किसीमें स्थिति ही भाग तो ठीक बनता है, किन्तु किनारके भाग घने हो जाते गलत है। ऐसी दशामें पृथ्वी नारंगीके समान गोल है यह हैं। ऊपर नीचेके भागों में भी त्रुटि रहती है। कहना कहाँ तक युक्रमंगत है ? जो कुछ भी हो 'श्री जे. (५) स्टोरियोग्राफिक प्रोजेक्शन-इसमें किनारोंका मेकड नाल्डकी वह नयी खोज ( जो जैनधर्मानुसार है क्षेत्रफल असली क्षेत्रफलसे बहुत बढ़ जाता है। शीघ्र ही वैज्ञानिक जगतमें उथल पुथल पैदा करेगी। इनके अतिरिक्र पोलीकोनिक और सेन्सन प्लेमन्टीडके -'जीवन' से। पार्श्व जिन-जयमाल (निन्दा-स्तुति) (स्व०६० ऋषभदाम चिलकानबी) यह जयमाल उसी 'पंचवालयति पूजा पाठ' के अन्तर्गत पार्श्वनाथ पूजाकी जयमाल है जिसका एक 'पूजा विपयक शंका समाधान अंश पिछला किरणमें प्रकाशित किया जा चुका है। यह अंश प्राय. निन्दामें स्तुतिके अलंकारकी छटाको लिये हुए है और स्व०पं. ऋषभदाम जीक रचना कौशलका है। -जुगलकिशोर मुख्तार . दोहा मह-पापिन हूँ को मंगलदा, या अन्यायी भी हैं महा। मणि-दीपन हरि-सुर जज, पारस-नख झलकांहि। फुन अनौपम्प प्रभु हिंसक है, रिपुकर्म अनन्त विध्वंसक हैं नख प्रति जड़े मणि प्रचुर, इम निभूषण प्रभु नाहि ॥१ निर्बाध वचन जो है जिनको, ताने अति दुःख ह वादिनको । त्रोटक छन्द दुखदावच असत कहावत है. प्रभुमें इम सतहुन मावन है ॥ जय प्रभु गुणगणपति कह न सकें,हम अल्पवुन्द्रि बस भक्ति बकें। सुर-नर-पशु-चित हर हो चोरा, है नाम मनोहर ही तारा । जय प्रभु असमान सरागी हैं, सहु जन्तु दया चित जागी हैं। सब ज्ञेय त्रिकाल-त्रिलोक लखो, ब्रह्मचर्य हूं नात नाहि रग्वा फुन अद्वितीय जिन द्वेष धरै, निज अघनासे भविपाप हरें। कछु कहन-गम्य जिनगज नहीं, समवमृत श्रादि समाज सही अज्ञानी हैं इम जानपरी, तज छता अगम-सुख श्रास करी॥ बस येही कही भगवान बने, जिन परिग्रह हैं अत्यन्त पने ॥ इन्द्रीय दरससे होने हैं, सुख कहाँ परिश्रम कीने हैं। ऐसे पण पाप मुहावन है, चारित्रको हह कहावत है। नहिं भोगसके कोई वस्तु छती,कृतकृतको मिस नहिंसक्ति रती सुर-असुर-खगाधिप आदि जज, चक्री हरि-प्रतिहरि काम भजें फुन प्रभु अपूर्व ही क्रोध धरा, वय बालहि मन्मथ दूर करा। प्रभु मानी अति छदमस्थपने, निज अनुभवसिद्ध-समान बने । महा पुरुषनके इम दोष सबै, गुणगणतै दिव्य विशेष फबै । ज्यों कालिम निन्ध है स्वच्छनमें, पर अनि सोहै वह अक्षनमें मायावी हु प्रभु मुखिया हैं, बने बाह दुखी हिय सुखिया हैं। गज-व्याघ्र कपी तोहे वन्द तिरे, अब बार मेरी हम भक्त निरे लोभी तृष्णा अत्यन्त धरी, हूँ त्रिभुवनपति यह चाह करी ॥ संवरसे मदमत तारे हैं, हम हूँ बहु भ्रमते हारे हैं । अति तुष्ट कुदेवन निन्द रहे. सब हास्य-कषाय-विशेष गहे। रति सहजानन्दमें ठानी है, कर भरति हेच तिय मानी है। तो विरद निकृष्ट उधारन है, अब ढील करी को कारन है। अति भूक भ्रमणका शोककिया,विधि-बन्धनसों भयो भीतहिया निज पास मुझे अब ले लीजै, अविचल थल झटपट दे दी जिन मानव रोके संवरसे, अरु अनुपजुगुप्सा अम्बरसे ॥ मैं भक्त नमूं तुम चरणनको, नहीं पार मिलै गुण-वर्णन को कामी वल्लभ शिवनारि प्रती, यह अचरज है तोउ बाल-यती अब पार करो को खटका है, प्रभु दास ऋषभ बहु भटका है ।। ऐसे कपाय प्रति धारक हैं, तउ इन्द्र जजै दुख-हारक हैं। दोहाप्रभु विषयी त्रिभुवन-विषयनके, तोउ,स्वामि कहावें ऋषियनके सुनियत है प्रभु तुम कियो, राग द्वेषको नास । त्यागेस बहु ऐश्वर्य गयो, व्रत-भंगको दोष जिनेन्द्र बहो ताते तारो दाव मोहि, तोहि सम दुर्जन दास ॥२०॥
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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