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[वर्ष १३ है, जिसके मादिके दो पत्र और अन्तिम पच नहीं हैं। इसकी
तेहि लिहाबइ णाणा गन्थई, पनसंख्या ५८८ है । जिसको रत्तोकसंख्या ३०००
इय हरिवंस पमुह सुपसत्थई, बतखाई गई है। इस प्रन्यमें परिच्छेद या अध्याय हैं।
विरइय पढम लिहहि वित्थारिय, इम ग्रंथकी रचना भी, विक्रम संवत् १५५३ को श्रावण गुरु
धम्म परिक्खपमुह मणहारिय। पंचमीके, दिन मांडवगढ़के दुर्ग और जेरहट नगरके नेमीश्वर चौथी कृति 'योगसार' है। जिसकी पत्र संख्या है, जिनालयमें हुई है । उस समय ग्यासुद्दीनका राज्य था और यह अन्य दो परिच्छेदों या सन्धियों में विभा है। जिनमें उसका पुत्र राम्पकार्यमें अनुराग रखता था, पुनराज नामके गृहस्थोपयोगी सैद्धान्तिक बातों पर प्रकाश डाला गया है। एक वयिक उस समय नपीरशाहके मन्त्री थे । और ईसर सायमें कुछ मुनिचर्या प्राविका भी उल्लेख किया गया है। दास नामक सासन उस समय प्रसिद्ध थे, जिनके पास यह ग्रन्थ सम्बत् १९५२ में मंगसिर महीनेके शुक्लपक्षमें विदेशोंसे भी वस्त्राभूषण पाते थे (?) और जयसिंधु संघवी रखा गया है। प्रत्यकी यह प्रति भी सम्बत् १५५२ की शंकर तथा सषपति नेमिदास उक ग्रंबके अर्थक ज्ञायक थे, लिखी हुई है. जिसमें प्रशस्तिका अंतिम भाग कुछ खराब हो अन्य साधर्मी भाइयोंने भी इस प्रन्यकी अनुमोदना की थी। जानेसे पढ़ा नहीं जाता। प्रशस्ति में प्रायः वही उक्लेख दिये और हरिवंशपुराणादि प्रन्थोंकी प्रतिलिपियां कराई गई । जिनका उल्लेख परमेष्ठिपकाशसारमें किया जा चुका है। थी। इससे उस समय जेरहट नगरके सम्पन होनेकी सूचना
ग्रंथके अन्तिम भागमें भगवान महावीरके बाद के कुछ मिलती है। जैसा कि प्रशस्तिके निम्न अंशसे प्रकट है:
प्राचार्योंकी गुरुपरम्पराके उलेखके साथ, कुछ अन्यकारोंकी दहपणसयतेवण गयवासई,
रचनाओंका भी उल्लेख किया गया है । और उससे यह पुरण विकर्माणव-संवच्छरह ।
जान पड़ता है कि भहारक श्रुतकीर्ति इतिहाससे प्रायः मनतह सावण मासहु गुरपंचमि,
भिज्ञ थे और उसके जाननेका भो उन्हें कोई साधन उपलब्ध पहु गंथु पुण्णु तय सहन तहें।।
नहीं था जितना कि आज उपलब्ध है। इसमें श्वेताम्बरमालवदेस दुग्गडव चदु.
दिगम्बर घमेदके माथ, आपुलीय (यापनीय संघ) पिलवट्ट साहिगयासु महाबलु।
और निःपिच्छिक मघका भा नामोल्लेख करा गया है। साहि णमोकणाम नह णंदणु,
और उज्जैनीमें भद्रबाहुसे चन्द्रगुप्त का दीक्षा ले का उल्लेग्य राय धम्म अणुरायउ बहुगुणु। भोया हुया है । प्रबकारकी रष्टिय अनुदारता कूट-कूटपुज्जराज वारणमात पहाणई,
कर भरी हुई थी। वे जैन-धर्म की उम प्रौढा परिणतिस ईमरदास गयदई पाणई।
प्राय घनाभज्ञ थे जिस महावारने जगतक सामने रखा था। वत्थाह ण देसु बहु पावइ,
आपने अपन प्रन्धक ६५वें पत्रमें लिखा है कि जो भाचार्य अह-णि स धम्महु भावण भावइ ।
शूद्र,त्र, दामी और नौकर बरहके लिये क्त देता है वह तह जेहटणयर सुपसिद्धा,
निगातम जाता है और वहा अनन्त काल तक दुम्ब जिणचेईहर मुरण सुपबुद्धई।
भोगता है। णेमोसर जिणहराणवसंतई,
इन चारों ग्रन्थों अतिरिक्त आपकी अन्य क्या रचनाएँ विरयहु एहु गंथु हरिसंतई। जयसिन्धु तह संघवह पसत्थई,
है यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। वे सभी रचनाएं माधारण संकरू नेमिदास बुह तत्स्थई।
है। भाषा माहिन्यकी दृष्टिसं उन्हें पुष्पदन्तादि महाकवियोंके
प्रन्थों जैसा गौरव प्राप्त नहीं है । फिर भी उनमें हिन्दी तह गंयत्यभेद परियाणिउ,
भाषाके विकासका रूप परिलक्षित होता ही है। एउ पसत्थु गन्थु सुहु माणि । अवरमंघवइ मणि अणुराइय,
मह जो सूरि देइ वर शिस्त्रह,णीच-सूर सुय-दासी-भिवई गन्थ अत्य सुरिण भावण भाइय । जाह शिगोय असुह मण्डजई,अमियकाल तई घोर-दुइ भुम्जा