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________________ धारा और धारा के जैन विद्वान (परमानन्द जैन शास्त्री) भारतीय इतिहास में 'धारा' नामको नगरी बहुत प्रसिद्ध प्राप्त की है। और कई प्राचाय तो तत्कालीन राजाघोंसे रही है। उसे कब और किसने बसाया, इसके प्रामाणिक पूजित तथा उनके नव रत्नोंमें प्रथित रहे हैं। वहां अनेक उल्लेख अभी अन्वेषणीय है। एपि प्राफिया इण्डिका जिल्द संघों और गण-गच्छोंके प्राचार्य रहते थे। और उनके भाग के निम्न पद्यसे ज्ञात होता है कि धारा नगरी को सांनिध्यमें अनेक शिष्य दर्शन, सिद्धान्त, काव्य और व्यापवार या परमारवंशी राजा वैरिसिहने अपनी तलवारकी करणादिका पठन-पाठन करते थे, और विद्याध्ययनके द्वारा धारसे शत्रुकुलको मार कर धारा नगरीको बसाया था। अपने जीवनको प्रादर्श बनानेका प्रयत्न करते थे । राजाकी यथा पोरसे भी अनेक विद्यालय और पाठशालाएं चलती थीं "जातस्तस्माद् वैरिसिंहोऽत्र नाम्ना, जिनमें सैकड़ों छात्र शिक्षा प्राप्त करते थे। इन सब कार्योंसे लोको व ते वजट स्वामिनं यम् । उस समय की धारा नगरीकी विशालता, महानता और श्री शत्रोवर्ग धारयासे निहत्य, सम्पन्न होनेका उल्लेख मिलता है। धारामें यवनोंका अधिकार हो जाने पर उन्होंने धार्मिक भीमद्धारा सूचिता येन राज्ञा ॥" विष वश हिन्दुओंके ऐतिहासिक स्थानों और देव मन्दिरोंकहा जाता है कि वैरिसिंहने धाराको बसाने १ के साथ जैनियोंके भी अनेक देवस्थान तोड़ दिये गए, उनके यह कार्य सन् हासे ११ ईस्वी, (वि.सं. १७१ से पाषाणोंसे उन्हीं स्थानोंमें मस्जिदोंका निर्माण कराया गया, २६८) तकके मध्यवर्ती समयमें किया था । दर्शनसारके मूर्तियोंका तोड़ा या स्खण्डित किया गया । और उनके कर्ता देवसेनने अपना दर्शनसार वि० सं० १. में धारामें साहित्यको नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया। अनेक बहुमूल्य हस्तनिवास करते हुए वहांके पाश्वनाथ चैत्यालयमें माघ सुदी लिखित ग्रंथोंको पानी गर्म करनेके लिये हम्मामोंमें जला दशमीके दिन बनाकर समाप्त किया था । इस ग्रन्थमें दिया गया । इसीसे आजकल उज्जैन, धारा, काठमांडू और एकांतादि प्रधान पंच मिथ्यामतों, एवं द्रविड, यापनीय, मालव देशमें यत्र-तत्र खण्डहरों और जंगलोंमें अनेक जैन काष्ठा, माथुर और भिल-संघोंकी उत्पत्ति भादिका इतिहास मूर्तियाँ खण्डित अखण्ति दशामें उपलब्ध होती हैं। जो उनके कुछ सैद्धान्तिक उल्लेखोंके साथ किया है। जिससे यह वहां जैन-धर्मके अस्तित्व और प्रतिष्ठाकी घोतक है। अन्य ऐतिहासिक विद्वानोंके बड़े कामकी चीज है । दर्शनसार आज इस छोटेसे लेख द्वारा धारा और उसके समीपके इस उल्लेख परसे यह स्पष्ट हो जाता है कि धारा नगरी वर्ती स्थानोमें जो जैन साधु विहार करते थे और उन्होंने वि० सं० ११० से पूर्व बसी हुई थी। कितने पूर्व वसी या उस समय में जो ग्रन्थ रचनाएं वहां की उन्हींके कुछ समुबसाई गई थी यह अभी विचारणीय है। यह हो सकता है ल्लेख इस लेख में देनेका विचार है जिससे १०वीं शताब्दीसे कि देवसेनने जब धारा नगरीके पार्श्वनाथ मन्दिरमें दशन १३वीं शताब्दीक समयमें जैनियों के इतिवृत्तका कुछ सही सार बनाया तब वहां राजा वैरिसिंहका राज्य रहा हो। पता चल सके। धारा नगरी और उसके आस-पास इलाकों में जैनियोंकी वस्ती, मन्दिर-मठ और साधु-सन्त यत्र तत्र विचरण धाराके कतिपय ग्रन्थकतो विद्वान् और उनके ग्रन्थ करते थे। १०वीं शताब्दीसे लेकर विक्रमको १३वीं शताब्दी (1) संवत् ११.की देवसनकी 'दर्शनसार' नामक रचनातक वहां जैनाचार्यों और विद्वानोंने निवास किया है और का उपर उल्लेख किया जा चुका है। इसके सिवाय इन्हीं उनके द्वारा वहां ग्रन्थ रचना करने कराने आदि के अनेक देवसेनकी 'मालाप पद्धति, नयचक्र, तत्वसार, आराधमासार समुल्लेख पाये जाते हैं । धारा मांडू और मालवा तथा आदि कृतियां कही जाती हैं। ये सभी कृतियां धारामें रची उज्जैन जैनधर्मक प्रचार केन्द्र रहे हैं । अनेक प्रथित एवं गई, या अन्यत्र, यह कृतियों परसे कुछ भी ज्ञात नहीं प्रभावशाली ग्रन्थकारोंने अपने अस्तित्वसे धाराको अलंकृत होता। किया है। और राज दरबारों में होने वाले शास्त्रार्थों में विजय (२) प्राचार्य महासेमने अपना 'प्रय म्न चरित' विक्रम
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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