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________________ किरण ४ नामसे स्पष्ट है। इसमें भगवान आदिनाथ की माता मरुदेवी को दिखाई देने वाले सोलह स्वप्नोंका नाम और उनके फलका कथन किया गया है। इसके रचयिता मुनि प्रतापचन्द्र हैं। प्रतापचन्दन इस ग्रन्थकी रचना कब की, यह ग्रन्थ परसे कुछ भी ज्ञात नहीं होता। चूंकि यह गुच्छक सं० १५०० के बाद लिखा गया है। अतः उसका रचनाकाल उससे पूर्व का होना ही चाहिये | की रचना सामान्य है । उसका आदि ग्रन्त भाग निम्न प्रकार है आदि भाग :नाभिरायहं घरेमरुदेवी राणी तुरंग तालांग सोतालिमतले नीदमरे सोयंत सुपिनडे देखाइ पच्छिमर वणिहि विगय-म 1 अन्त भाग : सो यह जो गावइ सो मणि भाव, एकुचित इकमणि जो सुखइ अवि-पाव उम प्रतापचंद मुनि भए दूसरी रचना 'नेमिनाथ रासा है- यह नौ पद्योंकी एक छोटी-सी रामा रचना है। जिसके कर्ता काष्ठामंत्री मुनि मुन्द्र हैं, जो मुनिके शिष्य थे उकृतिमें भी त्रिमल । गुरु परम्परा और रचनाकालका कोई उल्लेख नहीं है। रचना का आदि अन्त भाग निम्न प्रकार है : - हिन्दी भाषा के कुछ प्रन्थोंकी नई खोज । तप जपु संज लांच मोसगु लंपण आइ णिरुते होइ न मोक्यहं कारण वातू जामख पेखइ अप्पें ॥ इनकी नीमरी कृति 'आदिनाथ बीनती है जिसमें आदि ब्रह्मा आदि जिनकी स्तुति की गई है। उसक एक पथमें कविने अपना नाम निम्न शब्दों व्यक्र किया है। उसका श्रादि और नाम वाला वह पद्य निम्न प्रकार परविवि आदि जिन्दु त्रिभुवण तारण जगतगुरु । पूर्वका कोई रामा देखने में नहीं श्राया । कविवर देवदत्तका उक्त अम्बादेवी राम अभी अनुपलब्ध हैं । खोज करने पर सम्भव है यह मिल जाये। उनके अन्य कई प्रथम अभी प्राय हैं जो अपभ्रंश भाषा में लिखे गए हैं, जैसे वरांग आदि [०१०३ इन्द्र नरेन्द्र नर्मति पाव पणासण सुख करण | तु कइलासह राज कर्म कलंक अवहरि | मुक्ति वरंगण साह, मग्ररण महाभट मारियउ । X X X X काण्ठ संघ मुणिसार कुमुदचंदु जति इम भइ माम भाव घरे वि आगर जिनवर वीनतिय ॥ मनमोरा नामकी एक चार इन्दों वाली छोटीसी रचना है जिसमें चाग्मा को पराधीन एवं पलित करने वाले पाय विषय, हिंसा और निष्ठुरता आदि दोपस बचा कर भ्रमवनरूपी सरोवरमें मोते हुए श्रात्मा को जगानेका उपक्रम किया गया है। इसके रचयिता कवि पंडिजिनदास हैं। इस नामके अनेक विद्वान व्यक्ति हो गए हैं उनमें से यह कौन है और इनकी गुरु परम्परा क्या है यह रचना परले कुछ शात नहीं होता। इनकी दूसरी कृति 'इन्द्र नाम की है जिसमें भगवान आदिनाथके जन्मोत्सवका कथन दिया हुना है | रचनाका अन्तिम भाग इस प्रकार है :जिन कुमइ पाय न पामु पनहि चित्त पुरिस करे। घल्लहि साहु विसन चूरि खितकार रयातिरिण समुधरे । संतोष करिदय धम्मु संजम, दुगइ शिवारगु तुहु वरु हरि-कन्तु वंभु-जिगिंद साहु मोरु अस्थि कलावरु ॥ बिनवररास- हम रामकं कर्ता महाचारी 'उ' हैं। प्रस्तुत रासमें ४० पद्य अहित है उनमें ३२ पद्य कविने किया है कि हमा उसे शुद्ध करनेकीरारचना साधारण हे ब्रह्मचारि ऊदू' किसके भी अज्ञात है : १०७६ श्री नाटा १२वीं १३वीं शताब्दी अपने उपलब्ध रासा साहित्यको प्राचीन बताते हैं परंतु जब सं 100 के ग्रन्थ में 'अम्बादेवीराम' का उल्लेख मिलता है तब दिग स्वरसम्पदाय उससे पूर्व रामपरम्परा होने की सूचना मिलती है। डा० वासुंदवरजी अशलने 'म' के द्वारा 'रासा' का उल्लेख करना बतलाया है । अत राम परम्परा प्राचीन जान पड़ती है। होने पर भी की है। शिष्य थे, यह रचनाका यादि अन्त भाग इस प्रकार है ग्रादि भाग-जिगुनबहु जिगुव जिगु मोर हियइ समाढ दोस अठारह रहियउ ताकइ लाग उपाइ ॥ १ सुरनर जा कहु सेर्वाह, मुनिगण सेव कराहिं । दानव मेवहि पग नवहि, पानगडि करि जाहि ॥ :-- भचारि कब ऊदू जिनगुण नाहीं अतु । सिद्ध वधू जिण रानड विलमद्द मग्सु वसतु ॥ ३३ X X X X यह रासउजड़ गाय हम जिन दीजहु खोडि । अधिक हो जइ कोयड कइयण लोजहु जोडि ॥३६
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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