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अनेकान्त
। वर्ष १३ यथा शुक्लं रूपं किं बलाका पताक वेति । विशेपनि- कथमेकेन्द्रियाणां श्रुतज्ञानमिति चेत् कथं चन भवति ?
आनाद्याथात्म्यावगमनमवायः । उत्पतन-निपतन-पक्ष श्रोत्राभावान शब्दावगतिस्तदुभावानशब्दार्थावगय विक्षेपदि.भर्वलाकैवेयं न पतकेति । अवेतस्य काला- इति ? नष दोपः, यतीनायमेकान्तोऽस्ति शब्दार्थावबोध न्तरे अविस्मरणं धारणा । यथा सैवेयं बलाका पूर्वाह एवं श्रुतमिति । अपि तु अशब्दरूपादपि लिंगाल्लिगियामहमद्राक्षमिति । एषामवग्रहादीनामुपन्यासक्रम-उत्प- ज्ञानमपि श्रुतमिति । अमनमां तदपि कथमिति चेन, त्तिकमकृतः। (सर्वार्थसिद्धि टीका) मनोऽन्तरेण वनस्पतिषु हिताहितप्रवृत्ति-निवृत्त्युपलम्भ
तोऽनेकान्तात ॥ जब हम श्रुतज्ञान पर आते हैं तब वह तो पूर्णतः मनः
(षट्वंडागम टीका १,१,११६ पृ० १, ३६१) साध्य हो माना गया है, क्योंकि वह, द्वारा ग्रहण किये गये यहां स्वामी वीरसेनने दो प्रश्न उठाकर उनका उत्तर पदार्थसे प्रारम्भ होकर लिग-लिंगिव्यवहारसे अनुमान द्वारा देनेका प्रयत्न किया है। एक तो उन्होंने यह पूछा है कि एक अन्य ही पदार्थका बोध कराता है। इस सम्बन्धमें निम्न जब एकन्द्रिय जीवांके श्रोत्रेन्द्रिय ही नहीं होती तब उनके उल्लेख ध्यान देने योग्य है
श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है। इसका उन्होंने यह समुचित श्रुतं मतिपूर्व द्वधनेक-द्वादशभेदम ।
उत्तर दिया कि श्रुतज्ञान श्रोग्नेन्द्रियसे ग्रहण किए गए पदार्थ श्रुतमनिन्द्रियग्य। (तत्वार्थसत्र १-२०,२.२१) द्वारा ही उत्पन्न हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। किंतु किसी श्रतज्ञानविषयार्थः श्रतम् । स विषयोनिन्द्रियस्य। भी इन्द्रिय द्वाग ग्रहण किए गए पदाथके श्राधयसे पदार्थापरिप्राप्त-श्रु तज्ञानावरणक्षयोपशमस्यात्मनः श्रुतस्यार्थे- न्तरके बोधरूप श्रुतज्ञान उत्पन्न हो सकता है। दूसरा प्रश्न निन्द्रयावलम्बनज्ञानप्रवृत्तेः। अथवा श्रुतज्ञानं श्रुतं प्रकृत विषयके लिए बहुत महत्त्व पूर्ण है। वह प्रश्न हैतदनिन्द्रियस्यार्थःप्रयोजनमिति यावत ! स्वातन्त्र्यसाध्यमिदं “लिङ्गसे लिङ्गीके बोधरूप श्रुतज्ञान मनरहित जीवोंके किस प्रयाजनमनिन्द्रियस्य ।
प्रकार होगा?" इस प्रश्नका उत्तर स्वामी वीरतनने केवल (सर्वार्थसिद्धि टीका) यह दिया हैश्रुतं श्रोत्रेन्द्रियस्य विषय इति चेन्न, श्रोत्रेन्द्रियग्रहणे "नहीं, क्योंकि वनस्पतियों में भी मनके बिना हितकी श्रुतस्य मतिज्ञानव्यपदेशात् ........ 'यदा हि श्रोत्रेण ओर प्रवृत्ति और श्रहितकी ओरस निवृत्ति देखी जाती है, ग्रह्यते तदा तन्मतिज्ञानमवग्रहादि व्याख्यातम , तत अतएव यह एकान्तनियम नहीं है कि मनसे ही श्रुतज्ञानकी उत्तरकालं यत्तत्पूर्वकं जीवादिपदार्थस्वरूपं तक तमनि- उत्पत्ति हो ।' यही प्रश्न धनलाकारके मनमें संज्ञी और न्द्रियस्येत्यवसेयम् । (तत्त्वार्थराजवार्तिक) असंज्ञो जीवाद स्वरूपका विचार करते समय उत्पक्ष हुमा
सुदणाणं णाम मदिपुव्वं मदिणाणपडिगहियमत्थं था। सूत्र १,१,३५की टीका करते हुए वे कहते हैंमात्तणण्णाम्ह वावदं सुदणाणावरणीयवियोवसम- अथ स्यादर्थालोक-मनस्कार-चतुर्व्यः सम्प्रवतमाने जणिद। (धवला भा०१पृ. १३)
रूपज्ञानं समनस्केपूपलभ्यते, तस्य कथममनस्केष्वाचि
रूपज्ञान समनरत इस प्रकार वस्तुस्थितिपरसे एक असमंजसता उत्पन र्भाव हात ? नेप दोषः, भिन्नजातित्वात्।। होती है। जैनागममें मति और श्रुत-ज्ञानके जो लक्षण बत
(पद् खं० १पृ० २६१) लाये गए हैं उनसे उनके उत्पन्न होने में मनको सहायता
अर्थात् 'पदार्थ, प्रकाश मन और चतु इस सबके अनिवार्य पाई जाती है। अतः जिनके मन नहीं माना गया संयोगसे उत्पन्न रूपका ज्ञान मन सहित प्राणियोंमें तो पाया ऐसे असंज्ञी जीवोंमें उनका सद्भाव नहीं माना जाना चाहिए। ही जाता है, किंतु मन रहित जोवोंमें वह किस प्रकार सम्भव किन्तु यदि असशी जीवोंमें मति और श्रुत ज्ञानका सदभाव हो सकता है ? इसका वे उत्तर देते हैं कि 'इसमें कोई दोष स्वीकार किया जाता है तो फिर यह कहना अयुक्तसंगत होगा नहीं है। क्योंकि असंज्ञी जीवों द्वारा ग्रहण किया गया कि उनके मन नहीं है। षट्खंडागमकी धवला टोकाके विद्वान् रूपका ज्ञान एक भित्र जातिका होता है। लेखकको इस:असामन्जस्यका प्रतिभास था तभी तो उन्होंने यहाँ धवलाकारने असंज्ञी जीवोंके मति और श्रुतज्ञानका श्रुतज्ञानके स्वरूपको समझाते हुए यह प्रश्नोत्तर किया है कि- सदभाव स्वीकार करनेमें उत्पन्न होनेवाली कठिनाईका अनुभव