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असंज्ञी जीवोंकी परम्परा
(डा. हीरालाल जैन एम० ए०, नागपुर) जैनसिदान्तानुसार जीवोका विभाजन संझी और इस प्रकार हम देखते हैं कि मति और श्रुत ये दोनों असंही इन दो विभागोंमें भी किया गया है जैसा कि निम्न ज्ञान सम्यक्त्वके अभाव महित, असंज्ञी जीवोंमें व उनकी प्रामाजिक उल्लेखोंसे स्पष्ट है
निम्नतम श्रेणिके निगोदिया जीवोंमें भी स्वीकार किये गये १ सरिणयाणुवादेण अस्थि सरणी असएगी। हैं। यह बात गाम्मठसार जीवकाण्डमें इस प्रकार स्पष्ट कर
(षट्खडागम १, १, १७२) दी गई है१ समनस्काऽमनस्काः । (तत्त्वार्थ सूत्र १,११) अब हमें इस बातकी खोज करना है कि इन जीव
सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्थ जादस्स पढममयम्हि जातियोंमें किस प्रकारके ज्ञानका होना संभव है। इस संबधमें
फासदियमदिपुव्वं सुदणाणं लाद्धअक्खरयं षट्खण्डागम सत्प्ररूपणाके निम्नलिखित सूत्र ध्यान देने
॥गो. जी०३२१ ॥ योग्य है
यहां हमारे मन्मुख यह एक प्रश्न उपस्थित होता है कि मदि अण्णाणी सुद-अएगाणी एईदियप्पदि जाव
असंज्ञी जीवों में मनके विना मति और श्रुतज्ञान कैसे सम्भव सासणसम्माइट्टि ति ॥ ११६॥
हैं ? इन दोनों ज्ञानोंका जो स्वरूप बतलाया गया है और विभंगणाणं सण्णिमिच्छाइट्ठीणं वा सासणस
तत्सम्बन्धी जो उल्लेख शास्त्रोंमें पाये जाते हैं उनसे निःसंदेह म्माइट्ठीण वा ॥११७ ॥
उन ज्ञानांकी प्राप्तिमें मनकी सहायता अनिवार्य सिद्ध होती है। आभिणिवाहियणाणं सुदणाणं अोहिणाणमसं
जैसे-मतिज्ञानके चार अंग हैं। प्रथमतः किसी एक इंद्रियके अपने जदसम्साइद्विप्पहडि जाव खीणकसाय - वीदराग
विषयभूत पदार्थक सम्पर्कमें पाने पर वस्तुकी सामान्य सत्ताका छदुमत्था ति ॥ १२०॥
ग्रहण होता है। यह मतिज्ञानका प्रथम अंग है जिसे अवग्रह मणपज्जवणाणी पमत्तसंजदप्पहडि जाव खीण- कहत है । तत्पश्चात् प्रस्तुत पदार्थक विषय में जाननेकीला कसाय-वीदराग-दुमस्था त्ति ।। १२१॥
होती है जिसे ईहा कहते हैं। यह ईहा मानसिक क्रिया ही केवलणाणी तिस हाणेसु सजोगिकेवली अजोगि- हा सकती है। इसके पश्चात् पदार्थका निश्चय होता है जो केवली सिद्धा चेदि । १२२॥
अवाय कहलाता है और जो पुनः मन द्वारा ही हो सकता ___संक्षेपतः इन सूत्रोंमें व्यवस्थित रूपसे यह बतलाया
है, क्योंकि, इसमें पदार्थके गुण-धर्मोका ग्रहण व निषेध किया गया है कि जैनमिद्धान्तमें जो पाठ प्रकारके ज्ञान माने गये
जाता है। अन्ततः पदार्थको कालान्तरमें स्मृतिकी अवस्था हैं उनमेंसे प्रथम दो अर्थात् मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान
पाती है जिसे धारणा कहते हैं। इसीके द्वारा जीवमें अनुकूल एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर पंचन्द्रिय तकके असंही जीवोंमें होते .
या प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती है जिसे उसकी हिताहित प्रवृत्ति हैं, और शेष सब ज्ञान केवल संजी जीवों में ही सम्भव हैं। कहत । यहां यह बात ध्यानमें रखने योग्य है कि मति अज्ञान और मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम। श्रुत अज्ञानसे तात्पर्य मति और श्रुत ज्ञानके प्रभावसे नहीं, तदिन्द्रियानिन्दियनिमित्तम् । अवाहेहावायधारणाः। किन्तु उनके सद्भावसे ही है, कंवल उनमें सम्यक्त्वका
(तत्त्वार्थसूत्र १-१३-१५) प्रभाव पाया जाता है। इसका स्पष्टीकरण षट्खंडागमके
विषय-विषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति । तदनटीकाकारके शब्दोंमें इस प्रकार है
न्तरमथस्य ग्रहणमवग्रहः । यथा चक्षुषा शुक्लं रूपमिति "भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानम् । मिथ्यादृष्टीनां कथं ।
ग्रहणमवग्रहः । अवग्रहगृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकांक्षणमीहा भूतार्थप्रकाशकमिति चेन्न, सम्यङ्-मिथ्यादृष्टीनां प्रकाशम्य समानतोपलम्भात् । कथं पुनस्तेऽज्ञानिन
® अखिल भारतीय प्राच्य सम्मेलनके १६वें अधिवेशनके इति चेन्न, मिथ्यात्वोदयात्पतिभासितेऽपि वस्तुनि
समय लखनउमें प्राकृत और जैनधर्म विभागमें पढ़ा संशय-विपर्ययानध्यवसात्यानिवृत्तितस्तेषामज्ञानितोक्तः
गया निबन्ध | मूल निबन्ध अंग्रेजीमें है और अभी (भा०१पृ०१४२)
मूल निवन्ध जनधर्म विभाजनके
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