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किरण ५] असंझी जीवोंकी परम्परा
[१३१ करके उसका जो समाधान किया वह विचार करने योग्य है। किया है। जैसेभूतज्ञानके लिए उन्होंने मनके सद्भावको अनिवार्य स्वीकार तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम । (तसू.१-१४) नहीं किया । किन्तु यह बात सिद्ध नहीं होती, क्योंकि, श्रुत- न चतुरनिन्द्रियाभ्याम् । (त० सू. १-१४) ज्ञान तो मानसिक व्यापार माना जाता है, जैसा कि ऊपर श्रुतमनिन्द्रयस्य । (त० सू०२-२१) बतलाया जा जुका है । शास्त्रमें श्रुतज्ञानको मनका ही विषय तत्त्वार्थसूत्र १, २४में प्रयुक्त हुए अनिद्रिय शब्दका अर्थ कहा है-'श्रुतमनिन्द्रियस्य' (तत्वार्थसूत्र २-११)। हम समझाते हुए सर्वार्थसिद्धि टीकाके कर्ता पूज्यपाद देवनंदि उपर यह भी देख चुके हैं कि मतिज्ञानकी विविध दशायें प्राचार्य लिखते हैंमनोव्यापारके बिना मिट्ट नहीं हो सकतीं। धवलाकारका यह अनिन्द्रियं मनः अन्तःकरणमित्यनर्थान्तरम। समाधान कि असंज्ञी जीवोंका मतिज्ञान एक भिन्न जातिका कथं पुनरिन्द्रियप्रतिषेधेन इन्द्र लिङ्ग एवं मनसि होता है, उन कठिनाईको हल नहीं करता क्योंकि यदि यह अनिन्द्रियशब्दस्य प्रवृत्तिः? ईषदर्थस्य नत्रः प्रयोभिन्न जाति मतिज्ञानके शास्त्रोक प्रकारों में ही समाविष्ट होती गाद ईषदिन्द्रयमनिद्रियमिति । यथाअनुदरा कन्याइति । हैं, तब तो उसके लिये मनकी सहायता भी आवश्यक कथमीपदर्थः? इमानीन्द्रियाणि प्रतिनियत-देशविषसिद्ध है। और यदि वह उन भेदोंमें समाविष्ट नहीं होती याणि कालान्तरावस्थायीनि च, न तथा मनः।। तो या तो उसके अन्तर्भाव योग्य मतिज्ञानका क्षत्र विस्तृत अर्थात् अनिद्रिय, मन और अन्तःकरण ये पर्यायवाची किया जाना चाहिये। अथवा एक और पृथक ज्ञानका सद्भाव शट । यदि हा जाय किटके चित - स्वीकार करके उसका स्वरूप भी निर्धारित होना चाहिए। प्रतिषेधवाची अनिद्रिय शब्दका प्रयोग क्यों किया गया है? जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक उन कठिनाईका तो इसका उत्तर समाधान करनेके लिए किए गए पूर्वोक्न प्रयत्न असफल सिद्ध
अर्थात् अल्पके अर्थ में किया गया है-'ईषदिद्रियमानिद्रियहोते हैं।
मिति । जैसे कन्या 'अनुदरा' कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि अब हमारे सन्मुख प्रश्न यह है कि उन शास्त्रीय
उसके उदर ही न हो, किंतु उसका अर्थ अल्पोदरा समझना . अमामाजम्यको किस प्रकार सुलझाया जाय ? जो भी समा
चाहिये मनको भी ईपदिन्द्रिय कहनेका अभिप्राय यह है कि धान किया जाय उसमें दो बातोंका सामञ्जस्य होना श्राव
वह इंद्रिय होते हुए भी जिस प्रकार अन्य इंद्रियां प्रतिनियत श्यक है। एक नो अमंज्ञी जीवोंकी सत्ता और दूसरी
देशविषयात्मक हैं तथा काला रम स्थित रहती हैं वैसा मन उनमें मति और ध्रुतज्ञानकी योग्यता । मेरी दृष्टिमें
नहीं है। इसका केवल एक ही हल दिखाई देता है। वह
(२) तत्वार्थ सूत्र ८, ६ में अकपाय शब्दका प्रयोग यह कि श्रापंजी व श्रमनस्कका अर्थ · मनरहित' न 'करके अल्प मनसहित' किया जाय । इस अर्थक लिए हम 'अ' उपसर्गको निषेधवाची न मानकर अल्पतावाची ग्रहण
'दर्शन-चारित्रमोहनीयाकपाय - कषाय-वेदनीय कर सकते हैं । 'अ' उपसर्ग 'न' का अवशिष्ट रूप है, और
........."आदि। 'न' का अल्पतावाची अर्थ संस्कृत कोषकारों द्वारा स्पष्टतः
इस सूत्रमें 'पाय'का अर्थ समझाते हुए पूज्यपादचार्य
कहते हैं--चारित्रमोहनीयं द्विधा अकषाय-कपाय भेदात् । स्वीकार किया गया है, जैसा कि निम्न श्लोकसं सिद्ध है
ईषदर्थे नमः प्रयोगाद् ईषत्कषायोऽकषाय: । तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता। अप्राशस्यं विरोधश्च नबर्थाः पदप्रकीर्तिताः ॥
अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्मक दो भेद हैं-- अपाय नाव 'अ' उपसर्गका यह अर्थ जैन शास्त्रकारोंको अप- और कषाय। यहां प्रकपायमें ना का प्रयोग 'पद' अल्पके रिचित नहीं, क्योंकि, उन्होंने उसका इसी अर्थमें अपने अनेक अर्थमें होनेसे उसका अभिप्राय है 'इपकपाय' या अल्प पारिभाषिक शब्दों में प्रयोग किया है। ऐसे प्रयोगके यहां कपाय । कुछ उदारण उपस्थित कर देना उचित होगा।
(३) यही बात 'अप्रन्यान्यान' शब्दके सम्बन्ध में है। (७) मनके लिए अनेक वार अनिन्द्रिय शब्दका उपयोग अप्रत्याख्यानावरण कषायका वयोपशम पांचवें गुणस्थानमें