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________________ १३२] अनेकान्त [वर्ष १३ होकर जीवमें जो अप्रत्याख्यान रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं शको ग्रहण कर सके वह सही। तथा इसके समर्थनमें उन्होंने उनमें प्रत्याखानका प्रभाव नहीं, किंतु उसकी संयमासंयम एक पुरानी गाथा भी उपस्थित कर दी। रूप अल्पता पायी जाती है, जिसके कारण पाँचवाँ गुणस्थान इस व्याख्यानसे सुस्पष्ट है कि उक्त चार प्रकारको मानप्रत्याख्यानाभावरूप चौथे गुणस्थान तथा पूर्ण प्रत्याख्यानरूप सिक क्रियाके अतिरिक अन्य हीन प्रकारका मानसिक व्यापार छठे गुणस्थानसे पृथक माना गया है। असंज्ञी जीवोंमें भी होता है। • इस प्रकार एक भोर मतिज्ञान और श्र तज्ञानके स्वरूप इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र २, २५ (संज्ञिनः समनस्कार) तथा दूसरी ओर असंज्ञो जीवोंके स्वभावपर विचार करनेसे पर श्रुतसागरकृत टीका ध्यान देने योग्य है। वहां कहा 'अमनस्क' व 'असंज्ञी' शब्दों में 'घ' का अर्थ 'ईषद' व गया है'मल्प्य' करना ही उचित दिखाई देता है जिससे इन संज्ञा- सज्ञिनां शिक्षालापग्रहणादि लक्षणा क्रिया भवति । घोंका तात्पर्य उन जीवोंसे हो सकता है जिनका मन अल्प असज्ञिनां शिक्षालापग्रहणादिकं न भवति । असंव अपूर्ण विकसित है, तथापि जिसके द्वारा उन्हें प्रथम दो झिनामपि अनादिकालविषयानुभवनाम्यास दाादाप्रकारका ज्ञान होना सम्भव है ? किन्तु इन जीवोंमें मनका हार-भय-मैथुन-परिग्रहलक्षणोपलक्षिताश्चतस्रः संज्ञाः संझी जीवोंके समान इतना विकास नहीं होता कि जिपके अभिलाषप्रवृत्यादिकश्च संगच्छत एव, किन्तु शिक्षालापद्वारा उन्हें शिक्षा, क्रिया, पालाप व उपदेशका ग्रहण हो ग्रहणादिकं न घटते। सके। इस विषयपर धवलाकारका निम्न-निम्न स्पष्टीकरण अर्थात संझी जीवों में शिक्षा, पालाप आदिके ग्रहण ध्यान देने योग्य है : रूप क्रिया होती है, असंज्ञी जीवोंमें वह क्रिया नहीं होती। सम्यगजानातीति सझं मनः, तदस्यास्तीति संज्ञी। तथापि अनादिकालसे जो उन्हें विषयोंका अनुभवन होता नैकेन्द्रियादिनातिप्रसंगः, तस्य मनसोऽभावात् । अथवा चला पाया है उसके अभ्यासकी दृढ़ताके कारण उनके भी श्राहार, भय, मैथुन व परिग्रह रूप चार संज्ञाए तथा अभिशिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञो । उक्त च लाष और प्रवृत्ति प्रादि होती हैं । किन्तु उनके शिक्षा व सिक्खा-किरियुबदेसालावगाही मणोवलंवेण । अलापका ग्रहण श्रादि क्रिया घटित नहीं होती। जो जीवो सो सरणी तब्विवरीदो असरणी दु॥ टीकाकारोंके इस प्रकार व्याख्यानोंसे सिद्ध होता है कि (षट्खं० १ पृ. १५२) निम्नतम श्रेणिके जीवोंमें भी मति व श्रत ज्ञानके लिए अनिवार्य यहाँ स्वामी वीरसेनने 'संज्ञा' का अर्थ किया है वह कुछ मानसिक व्यापार अवश्य होता है। तो भी उन्हें इन्द्रिय, जिसके द्वारा भलं प्रकार जानकारी हो सके, अर्थात असंही कहनेका अभिप्राय यही है कि उनका मानसिक मन और वह संज्ञा इन्द्रिय जिसके हो वह संज्ञी। किन्तु विकास इतना नहीं होता जितना शिक्षा, क्रिया, पालाप व इस व्यत्पत्तिसे एकेन्द्रिय आदि जीवोंमें भी सजित्वका प्रस ग उपदेशके ग्रहण करनेके लिये आवश्यक है। इस प्रकार उपस्थित होता हुआ देखकर उन्होंने कह दिया 'नहीं' ए- असंज्ञी जीवोंमें मनके सर्वथा अभावकी मान्यता घटित नहीं न्द्रिय जीव संज्ञी नहीं हो सकते, क्योंकि उनके मनका होती, और यह स्वीकार किये बिना गति नहीं है कि असंही प्रभाव होता है । इस परस्पर विरोधी व्याख्यानकी अयुक्ति- जीवों में भी मति और श्रुत-ज्ञानके योग्य व्यापार करने वाले संगतताको मिटानेके लिए उन्होंने संज्ञोकी दूसरी परिभाषा मनका सदभाव होता ही है। दी। वह यह कि जो जीव शिक्षा, क्रिया, पालाप और उपदे [शेष प्रगले पक में ] साहित्य परिचय और समालोचन १. समायिक पाठादिसंग्रह (विधिसहित)-संकल- रिया, श्री दि. जैन युवकसंघ, केकदी (अजमेर)। पृड संख्या यता और अनुवादक पं. दीपचन्द जी जैन पायख्या, सब मिला कर १३८ मूल्य दस आना। साहित्य-शास्त्री, केकड़ी। प्रकाशक कुवर मिश्रीलाल कटा- प्रस्तुत पुस्तकका विषय उसके नामसे ही स्पष्ट है
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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