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________________ २१२] अनेकान्त [वर्ष १३ काव्यों में कुल नौ हजार शब्द हैं। इस काम को करनेका यह जायेगा और वे भावी भाषाके मूल शम्न मान लिये जाएंगे। तरीका है कि बारबार पाने वाले एक शब्दको एक गिना जाय (७) यदि हर एक ग्रन्थके अन्तमें भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे और यदि एक ग्रन्थकार बहु भाषा जानकार है, तो एक ही अध्ययन सम्बन्धी कोई परिशिष्ट हो, तो उससे भाषाके विकास विचारको जताने वाले कई शब्दोंको एक माना जाय, बाकीको पर बड़ा प्रकाश पडेगा । ऐमी एक उपयोगी भेंट डाक्टर छोड़ देना चाहिए । हाँ, यदि कोई विदेशी शब्द नये विचार होरालालजी द्वारा सम्पादित साययधम्मदोहा अन्तमें मेरे या अर्थको प्रकट करता हो तो उसे दूसरा शब्द गिना जाय। देखनेमें श्राई है। (३) जैन-द्रव्यानुयोग शब्दकोश, करणानुयोग शब्दकोश, यह काम सभी सम्प्रदायोंके विद्वानों द्वारा शुद्ध वैज्ञाजैन प्रमाणनय शब्दकोश, आदि भी तैयार होने चाहियें। निक दृष्टिमे करने योग्य है । जैन समाजमें कई-कई भाषाओं के (e) जैन साहित्यमें आनेवाले व्यक्तियों नामों नथा जानकार विद्वान बहुतसे हैं । डा. हीरालाल और मुनि श्री स्थानोंक कोश अलग अलग तैयार होने चाहिये। जिनविजयजी और डा. ए. एन. उपाध्याय, तो अखिल (१) प्रांतीय भाषाओंके जैन साहित्यके शब्दकोश अलग भारतीय ख्यातिके भाषा शास्त्री माने जाते हैं । पं० सुखलाल तैयार होने चाहिये। जी, पं० बेचरदास जी, पं० जुगलकिशोर मुख़्तार, पं० नाथू(६) प्राकृत और अपभ्रश भाषाके उन सभी शब्दोंकी रामजी प्रेमी और दूसरे कई विद्वान इस कामको अपने सूचियाँ अर्थ सहित तैयार होनी चाहिये जो उत्तर भारत और हाथोंमें लेकर इस कामको प्रगति दे सकते हैं। इस दिशामें दक्षिण भारतकी भाषाओं में ज्यों के त्यों या कुछ रूप बदल किया हुआ प्रयत्न और लगा हुश्रा धन भविष्यमें बहुत कर चालू हैं। इससे उन शब्दोंकी सर्वव्यापकताका पता लग लाभ दंगा । अस्पृश्यता विधेयक और जैन-समाज (बाबू कोमलचन्दजी जैन एडवोकेट ) यह विधेयक जैनोंकी धार्मिक स्वतन्त्रताको प्रत्यक्ष रूपये जैनियोंको कितनी हानि पहुँचेगी. इसकी कल्पना नहीं की चुनौती है। जैन वैदिक-धर्मके किसी रूप या इसकी शाग्याकं जा सकती। यह निश्चित है कि जैनमन्दिगें और जैन मानने वाले नहीं है । जैन-धर्म प्राचीन और स्वतन्त्र धर्म है, संस्थाश्रामें हरिजनोंको भेजनेसे, जब कि वे जैनधर्म का अनुयह सब स्वीकार करते हैं । राष्ट्रीय कार्योंके लिए जैनियोंने मरण नहीं करते उनकी हालत नहीं सुधरेगी या उनका सदा अपना अंश दान दिया है और वे भारतीय मङ्घके सदा सामाजिक दर्जा ऊँचा न होगा . राजनिष्ठ प्रजा रहे हैं। इस विधेयक द्वारा जैन मन्दिरों और जैम धार्मिक विधेयक २०१४ का उद्देश्य हरिजनोंका सामाजिक दर्जा संस्थानों में प्रवेश करने और उनका व्यवहार करनेका श्रधिऊँचा करना है । जैनियोंको इससे कोई आपत्ति नहीं है, यदि कार प्रतिरोधक दण्डका प्रत्येक जैनके मन में आनत उत्पन्न कर इस पिछड़े समाजकी उन्नतिके लिए कोई कदम उठाया जाता दिया गया है । इस कारणसं वह अपने धार्मिक स्थानोंका है । जैन केवल इतना ही चाहते हैं कि ऐमा अनिश्चिन और दुरुपयोग होने पर भी किसी प्रकारकी आपत्ति उठानेका म्वप्न दण्डकारी कानून न बनाया जाय, जो अल्प मंग्ख्यक जेन में भी विचार नहीं कर सकता। दण्डकी धाराओंकी शब्दासमाजको सदा परेशान करने वाला सिद्ध हो। वली इतनी अनिश्चित और लचकीली एवं व्यापक है कि __भारतकी वर्तमान और पिछली मर्दुमशुमारीसे यह मिन्ह हरेक जैन इसको जैसाका तैमा माननको विवश कर दिया हो गया है कि 'जैन धर्मावलम्बियों में एक भी हरिजन नहीं गया है। यदि कोई हरिजन किमी मजिस्ट्रेट के सामने किमी है। इन अवस्थाओं में यदि सब किस्मकी जैन संस्थानोंमें जैनके विरुद्ध कोई शिकायत करना है तो उस जनको अपनी उनको प्रवेश करने और उसका इस्तेमाल करनेका अधिकार निर्दोषता साबित करनी होगी । दण्ड-विधानका पहला सिद्धादेनेके लिए दण्डात्मक उपबन्ध बनाये जाते हैं, तो इससे न्त यह है कि अदालत द्वारा अभियुक्त उस समय तक
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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