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अनेकान्त
[वर्षे १३
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ककिने इस ग्रंथकी रचना अवंती देशस्थित धारा नगरीके अन्तर नहीं पाया। 'जिनवर' बिहारमें राजा भोजदेवके राज्यकालमें की है
इसके दो कारण जान पड़ते है, एक तो यह कि लिपिइनकी दूसरी कृति 'सयल-विहि-विहाणु' नामका जो कर्ता को उक्त संधियोंसे विहीन वाटतप्रति मिला हा भार महाकाव्य प्रन्थ है वह ५८ सन्धियोंमें समाप्त हुआ है। उसने उसीके अनुसार प्रतिलिपि करदी हो । दूसरे यह कि शुरूकी दो तीन सन्धियोंमें ग्रन्थके अवतरण, आदि पर लिपिकर्ताको स्वयं अपने सम्प्रदायके व्यामोहकी कड़ा भालोप्रकाश डालते हुए श्वों से वी सन्धि तक मिथ्यात्वके चना, मान्यताकी असंगति और कथन क्रमादिके काखमिथ्यात्व और लोकमिथ्यात्व मादि अनेक मिथ्यात्वों-बेढंगेपनका प्रदर्शन सह्य न हुआ हो-वह उन्हें रूढीवश का स्वरूप निर्देश करते हुए क्रियावादि और प्रक्रियावादि उसी तरह से मान रहा हो । और इस कारण उन सन्धिय प्रादि भेदोंका विस्तृत विवेचन किया है। परन्तु खेद है कि को प्रतिलिपि न की गई हो। अथवा अन्य कोई कारण १५वीं सन्धिके पश्चात् ३२वीं सन्धि तक १६ सन्धियां इस हुआ हो, कुछ भी हुआ हो, पर ग्रन्थ की अपूर्णता अवश्य प्रतिमें गायब हैं। १५वीं संधिके बाद ३२वीं संधि मा गई हैं. खटकती है आशा है विद्वज्जन अन्य पूर्णप्रतिका अन्वेषण जिससे अन्य खण्डित हो गया है, परन्तु पत्र संख्यामें कोई करनेका प्रयत्न करेंगे, जिससे वह
नवशिक्षितोंका धर्म विषयक गुमराहपन
___ जांच समितिकी आवश्यकताजैन समाजके सामने एक प्रस्ताव ।
(श्री दौलतराम 'मित्र')
(२) कहा कुछ भी जाय किंतु देखा यही जा रहा है कि गुमराहके कारण जांचके वक्त मामने पावेंगे ही फिर भी अधिकांश नव शिक्षित धर्मके विषयमें गुमराह होते जा रहे कुछ कारणोंपर यहां प्रकाश डाला जाता हैहैं । जैसे-जिनदर्शन नहीं करना, जिनवाणीके पठन-पाठन (१) शिक्षा पद्धतिके दोषका प्रभाव तथा खानपान सम्बन्धी प्रारोग्यप्रद प्रतिबन्धोंका "अाज कलकी शिक्षापद्धतिमें बड़ा दोष यही है कि वह भी न मानना, इत्यादि।
प्रात्माकी वस्तु नहीं रही।" गुमराह क्यों होते जा रहे हैं?
- सर्वपल्ली राधाकृष्णन बस इसी बातकी तो जांच करना है।
"जिस शिक्षाका विकाश मनुष्यने इसलिए किया था एक जांच समिति कायम की जाय जो या तो जगह- कि वह मनुष्यको उसके विचारों-भावों-को प्रगट करने में जगह घूमकर नव शिक्षितोंसे मिले या उनका किसी एक सहायक हो। वही शिक्षा जब मनुष्यके भावोंको छिपानेके जगह जमाव करके जांच करे और जांचमें जो कारण नजर काम पाने लगी तो क्या वह चादर और गौरवकी वस्तु रह प्रा समाजको चाहिये कि उन्हें दूर करनेका प्रयत्न करे। जाती है?"
-विनोबा कार्य अत्यन्त प्रावश्यक है। दिन पर दिन मामला बिगड़ता (२) शंका-समाधानको कमीजा रहा है। चिंताका विषय बन रहा है। क्योंकि-धर्मों "मनुष्य पर जब उसको श्रद्धा (धर्म शास्त्रकी बातों) धार्मिकै विना।
के विरोध प्रारंप पाते हैं तब सामने दो ही स्थिति रहती