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वर्ष १३]
धारा और धाराके जैन विद्वान
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रचा गया है, जो वर्तमान में नहीं मिलता है। इस टिप्पण पड़ते हैं। आपका 'सुदंशणचरित' नामका अपभ्रंश भाषाका की उत्थानिकामें दिए गए निम्नवाक्य स्वास तौरसे उल्ले- खण्ड काव्य महाकाव्यकी श्रेणी में रखने योग्य हैं। जहाँ खनीय है:-'धारानगरीवासनिवासिनः श्रीमाणिक्यनन्दि उसका चरित भाग रोचक और आकर्षक है पहो वह भट्टारकदेवाः परीक्षामुख्याख्यप्रकरणमारचयाम्बभूव. सालंकार-काव्य-कलाकी रष्टिसे भी उच्च कोटिका है। कविने __ माणिक्यनन्दी दर्शनशास्त्रोंके मर्मज्ञ विद्वान थे। उनके उसे सर
उसे सरस बनानेका पूरा प्रयत्न किया है। उन्होंने स्वयं अनेक शिष्य थे, जो उनके पास अध्ययन करते थे। उनमें
लिखा है कि रामायणमें राम और सीताके वियोग और प्रभाचन्द्र और नयनन्दीका नाम प्रमुख रूपसे उल्लिखित
शोक-जन्य व्याकुलताके दर्शन होते हैं और महाभारतमें मिलता है। इनका समय भी विक्रमकी ११वीं शताब्दी है।
पांडव और पृतराष्ट्रादि कौरवोंके परस्पर कलह और मारकाटके माणिक्यनन्दीके प्रथम विद्याशिष्य नयनन्दीने अपने
दृश्य अङ्कित मिलते हैं। तथा लोकशास्त्र में भी कौलिक, चोर 'सुदर्शनचरित' में अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख करते हुए
व्याचे प्रादिकी कहानियां सुननेमें आती हैं। किन्तु इस सुदनिम्न विद्वानोंका उल्लेख किया है। पवनन्दी, विष्णुनन्दी
शनचरित्रमें ऐसा एक भी दोष नहीं है । जैसा कि उसके विश्वनन्दी, वृषभनन्दी, रामनन्दी और त्रैलोक्यनन्दी ये सब
निम्न पद्यसे प्रकट है। उक्त माणिक्यनन्दीसे पूर्ववर्ती विद्वान हैं। संभवतः इन "रामो सीय-विभोय-सोय बिहुरं संपत्त रामायणे। नन्यन्त नामवाले प्राचार्योंकी यह परम्परा धारा या धाराके जादं पाण्डव-धायर सददं गोतं कली-भा-रहे। समीपवर्ती स्थानों पर रही हो। क्योंकि माणिक्यनन्दी और डेडा कोलिय चोर रन्जु गिरदा आहासिदा सुहये, प्रभाचन्द्र तो धाराके ही निवासी थे। अत: माणिक्यनन्दीके णो एक्कं पि सुदंसस्स चरिदे दोसं समुन्भासिदं । गुरु-प्रगुरु भी धाराके ही निवासी रहे हों तो इसमें पाश्चर्य- साथ ही उन्होंने काव्यकी श्रादर्शताको बार-बार व्यक्त की कोई बात नहीं है।
करते हुए लिखा है कि रस और अलंकारसे युक्त कविकी (6) नयनंदी और प्रभाचन्द्र चूंकि समसामयिक विद्वान कवितामें जो रस मिलता है वह न तरुणिजनोंके विद्रम हैं और दोनों ही माणिक्यनन्दीके शिष्य थे। चूंकि नयनंदीने समान रक्त अधरोंमें, न आम्र फलमें, न ईखमें, न अमृतमें, अपने को उनका प्रथम विद्या शिष्य लिखा है इस लिए प्रभा- नविषमें, न चन्दनमें, और न चन्द्रमामें ही मिलता है। चन्द्रसे पहले उनका परिचय दिया जाता है।
जैसा कि ग्रंथके निम्न पद्यसे स्पष्ट है :मुंजके बाद जब धारामें राजाभोजका राज्य हया, तब "णो संजादं तरुणि अहरे विद्रमा रक्त सोहे. उसके राज्यशासनके समय धाराका उत्कर्ष अपनी चरम णो साहारे भमिय भमरेणेव पुडिच्छ डंडे । सीमातक पहुंच गया था। चूंकि भोजविद्याज्यसनी वीर और णो पीयूसे, हले खिहिणे चन्दणे णेव चन्दे, प्रतापी राजा था । इस लिए उस समय धाराका सरस्वती- सालंकारे सुकइ भणिदे जं रसं होदि कव्वे ।" सदन खूब प्रसिद्ध हो रहा था। अनेक देशविदेशोंके विद्यार्थी नयनन्दीका प्रस्तुत ग्रंथ अपभ्रंश भाषामें लिखा गया उसमें शिक्षा प्राप्त करते थे। अनेक विद्वान और कवि वहां है, जो स्वभावतः मधुर है । फिर भी उसमें सदर्शनके रहते थे।
निष्कलङ्क चरितकी गरिमाने उसे और भी पावन एवं पठप्रस्तुत नयनन्दी राजा भोजके ही राज्यकालमें हुए हैं,
नीय बना दिया है । ग्रन्थमें १२ सन्धियां हैं जिनमें सुदर्शनऔर उन्होंने वहीं पर विद्याध्ययन कर ग्रन्थ रचना की है।
के जीवन-परिचयको अङ्कित किया गया है । परन्तु इस महाइन्होंने सकलविधि विधान कान्यमें अपनेको निर्मलसम्यक्त्वी.
काव्य ग्रन्थमें, कविको कथनशैली, रस और अलंकारोंकी पंचपरमेष्ठीका भक, धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थसे युक्र,
पुट, सरसकविता, शान्ति और वैराग्यरस तथा प्रसवश तथा शंकादिक मलसे रहित स्वर्गापवर्गरूप-सुखरसका प्रका
कलाका अभिव्यंजन, नायिकाके भेद ऋतुनोंका वर्णन और शक लिखा है।
उनके वेष भूषा आदिका चित्रण, विविध छन्दोंकी भरमार, इससे नयनन्दो प्रतिभासम्पन एक विद्वान् कवि जान
लोकोपयोगी सुभाषित और यथास्थान धर्मोपदेश आदिका
मार्मिक विवेचन इस काम्यग्रंथकी अपनी विशेषताके निर्देशक देखो, अनेकान्त वर्ष १० किरण :१-१२ है और कविको आन्तरिक भद्रताके घोतक हैं।