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________________ ४६.] विजया निरूप्यते एवं कालगदस्स दु सरीरमंतो बहिज्ज वाहिं था। विजावरुचकरा à सयं विचिंति जलाए ॥१६६६॥ समणाएं ठिदिकापो वासावासे तहेब बंधे। पडिलिहिदव्वा णियमा णिसीडिया सव्त्रसाधूहिं १६५७॥ एता सालोगा णादिविकिद्वा ण चावि आसण्णा । fafter विद्वत्ता रिसीहिया दूरमागाढा ॥१६६८॥ अभिसुधा अमुसिरामघसा उज्जोबा बहुसमा वयसिद्धिा रिजंतुगा अहरिदा आविला व तहा अणावाधा ॥१६६६ ।। जा अवर-दक्खिणाए व दक्खिराए व अध व अवराए। बसबीदो वणिजदि सिसीधिया सा पसथत्ति ॥ १६७०॥ अब ममधिसे भरे हुए साधु शरीरको कहां परित्याग करे, इसका पग करते है-इस प्रकार समाधिके साथ काल गत हुए माधुके शरीरको वैयावृत्य करने वाले माधु नगरसे बाहिर स्वयं ही यतनांक माथ प्रतिष्ठापन करें। माधुयोंको चाहिए कि वर्षावास तथा वर्षाऋतुकं प्रारम्भमें निपीधिकाका नियमसे प्रतिलेखन कर यहाँ भ्रमणका स्थितिरूप है। यह निपाधिका कैसी भूमि हो, इसका वर्णन करते हुए कहा गया है- वह एकान्त स्थानमें हो, प्रकाश युक्त हो, यसका न बहुत दूर हो, न बहुत पास हो, विस्तीर्ण हो विध्वस्त या खण्डित न हो, दूर तक जिनकी भूमि दृढ़ या ठोस हो, दीमक-चींटी रहित हो, छिद्र न हो, घिसी हुई या नीची-ऊँची न हो, सम-स्थल हो, उद्योतवती हो, स्निग्ध या चिकनी फिसलने वाली भूमि न हो निर्जन्तुक हो, हरितकायसे रहित हो, बिलोंसे रहित हो, गीली या दल-दल क न हो, और मनुष्य विचारिकी बाधा रहित हो। वह निषधिका कम्पनिकाले नैऋत्य, दक्षिण या पश्चिम दिशामें हो तो प्रशस्त मानी गई है। इससे आगे भगवती आराधनाकारने विभिन्न दिशाओं में होने वाली निषीधिकाओंके शुभाशुभ फलका वर्णन इम प्रकार किया है: यदि वसतिकासे निपीधिका नेय दिशामें हो, तो माधुमंघमें शान्ति और समाधि रहती है, दक्षिण दिशामें हो तो संघको आहार सुलभतासे मिलता है, पश्चिम दिशामें हो, तो संघका विहार सुखसे होता है और उसे शान-सयंमके उपकरणोंका लाभ होता है । यदि निधिका आग्नेय कोणमें हो, तो संघ स्पर्धा अर्थात् तू तू मैं-मैं होती है, वायव्य दिशामें हो तो अनेकान्त [ वर्ष १३ संघमें कलह उत्पन्न होता है, उत्तर दिशामें हो तो ज्याधि उत्पन्न होती है, पूर्व दिशामें हो यो परस्परमें खींचातानी होती है और संघ में भेद पड़ जाता है। ईशान दिशामें हो तो किसी अन्य साधुका मरण होता है। (भग० श्रारा० गा० १२०१ - १२०३ ) इस विवेचनसेवा श्रीर निपीधिकाका भेद विलकुल स्पष्ट हो जाता है। ऊपर उद्भुत गाथा नं० १९७० में यह माफ शब्दोंमें कहा गया है कि उसतिका से दक्षिण, नैऋत्य और पश्चिम दिशामें निधिका प्रशस्त मानी गई है। यदि निपीधिका वमतिकाका ही पर्यायवाची नाम होता, सो ऐसा वर्णन क्यों किया जाता। प्राकृत 'मिडिया' का अपभ्रंश ही 'निमीडिया' हुआ और वह कालान्तरमा होकर आजकल नशियोंके रूपमें व्यवहृत होने लगा | करने इसके अतिरिक्त आज कल लोग जिन मन्दिरमें प्रवेश हुए 'यों जय जय जय, frent front नस्पती, नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोस्तु' बोलते हैं। यहां बोले जाने वाले 'निस्प' पदसे क्या अभिप्र ेत था और आज हम लोगोंने उसे किस अर्थ में ले रखा है, यह भी एक विचारणीय बात है कुछ लोग इसका यह अर्थ करते हैं कि 'यदि कोई देवा। दिक भगवान के दर्शन-पूजनादि कर रहा हो, तो वह दूर था एक ओर हो जाय ।" पर दर्शनके लिए मन्दिर में प्रवेश करते हुए तीन वार निस्पही बोलकर 'नमोस्तु' बोलनेका यह अभिप्राय नहीं रहा है, किन्तु जैसा कि 'निपिद्धिका दंडकका उद्धरण देने हुए ऊपर बतलाया जा चुका है, वह अर्थ यहां श्रभित है । ऊपर अनेक अर्थो में यह बताया जा चुका है किनिसीहि या यानिधिका का अर्थ जिन जिन-बिम्ब, सिद्ध और सिद्ध-बिम्ब भी होता है। तदनुसार दर्शन करने वाला तीन बार 'निस्पही' - जो कि 'शिसिहीए का अपभ्रंश रूप हे को बोलकर उसे तीन वार नमस्कार करता है । यथार्थमें हमें मन्दिर में प्रवेश करते समय 'मोहिसोहिया या इसका संस्कृत रूप 'निपीधिकायै नमोऽस्तु अथवा 'वि.सीहियाए मधु पाठ बोलना चाहिए। वहां यह शंका की जा सकती है कि फिर यह अर्थ कैसे प्रचलित हुआ कि यदि कोई दवादिक दर्शन-पूजन कर रहा हो तो वह दूर हो जाय! मेरी समझ में इसका कारण 'निःसही या निस्सही जैसे अशुद्धपदके मूल रूपको ठीक तोरसे न समझ सकने के कारण 'निर उपसर्ग पूर्वक सृ' गमनार्थक -
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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