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________________ ११८] अनेकान्त [वर्ष १३ व्यक्त होती है-सम्यग्दृष्टि पापके कारणों और धूर्ततासे भी उदय रहित होता है इसलिए त्याग न होते हुए भी मद्य, मांस, अपकार करता हैमधु और उदुबर फलोंका भक्षण नहीं करता है दुरितायतनकेर सम्यग्दृष्टि उत्तमगुणानुरक्त, उत्तममाधुओंका भक्त और बर्जन करनेसे वह जैनधर्मकी देशनाका पात्र होता है। साधर्मीका अनुगगी है वह उत्तम सम्यग्दृष्टि है-(का. अनु.) सम्यग्दृष्टि यदि व्रत रहित है तो भी वह देव इन्द्र और नरेंद्रोंके द्वारा वन्दनी होता है और स्वर्गके सखको पाता है। सम्यग्दृष्टि यह विश्वास करता है कि उपशम और .-(कातिकेय द्वादश-अनुप्रक्ष गा. ३२६)। क्षयोपशम सम्यक्त्व असंख्यातवार भी हो सकता है-पं० बनावह रत्नोंमें सम्यक्त्यको महारत्न, योगोंमें उत्तमयोग, रसीदासक दृष्टान्तानुमार वह लुहारकी संडासोक समान हैरिद्धियोंमें महारिन्द्वि और सम्पूर्ण सिद्धियोंको करनेवाला चूकि लुहारको मन्डामी क्षणमें श्रागमें गिरती है तो क्षण मानता है। -का. अनु. गा. ३२५ में पानीमें वैसे ही उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्व भी कभी द्रव्य थे, हैं और रहेंगे इस मान्यतासे वह सात प्रकारके मिथ्यात्वरूप और कभी सम्यक्वरूप हो सकते हैं- उसके भयोंसे रहित होता है कि किसी भी द्रव्यको निबध्वंस अन्तःकरणमें यह तीव्र अहंकार नहीं है कि शरीरसे प्रेम करनेकी योग्यता किसीभी द्रव्य या पर्यायमें नहीं है। ही नहीं होता है या कोई भय होता ही नहीं है भले ही सर्वज्ञ सर्वव्यों और उनकी पर्यायोंको मर्व प्रकारसे सम्यग्दृष्टिके शरीर आदिक परवस्तु पर अनंतानुबन्धीसे विधिवत जानते हैं इस प्रकार वह पागमक द्वारा सब द्रव्य सम्बन्धिन भय ममत्वादिक न रहें-किन्तु शेष २१ कषायोंऔर पर्यायोंको संक्षिहमें मान लेता है-अविश्वास नहीं का किपीरूपमें सद्भाव हो भी सकता है पोर नहीं भी। करता है वह मदृष्टि है. गले ही प्रत्यक्ष रूपसे सर्व द्रव्योंकी जो जीव सम्यक्त्वस रित होता है व्यर्थ अत्यन्त श्राग्रही पर्यायोंको उसने न जाना हा३ । होता है किन्तु सम्यग्दृष्टिके युक्ताहार विहार आदिक हानेयदि व्यंतर देव ही लक्ष्मी देता है तो धर्म क्यों किया से बाह्म प्रकृतिमें बड़ा भारी अन्तर पड़ जाता है-अपूर्व जावे १ वह तो विचार करता है कि अपने शुभ या अशुभ परिणाम आत्मिक प्रसन्नता और अनाकुलता पर प्रेम भी उसका रूप अपराधसे जो इसने पुण्य या पाप संचित किया है उसके अनूठा ही होता है वन उपवन सुन्दर दृश्य और शहरों में - सुख या शान्ति नहीं है किन्तु जो श्रात्माके प्रदेशोंमें अपने (१) अप्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि अमूनि परिवर्त्य । ज्ञानादिक गुणोंको अनुभव करते हुए यथाशक्य सम्पूर्ण जिनधर्मदेशनायाः भवन्ति पात्राणि शुद्धधिया । इच्छाओंसे रहित रहनेमें सुख मानता है-पहले अशुभ -पुरुषार्थसिद्ध्युपाये अमृतचन्द्रः परिणामका त्याग कर पुनः शुभ परिणामका यद्यपि वे (२) सुरा-मत्स्यान् पशोमांसम् , द्विजातीनां बलिस्तथा दोनों युगपद हेय है-अशुभस निवृत्त होना और शुभमें धूतः प्रवर्तितं ह्येतत् , नैतद् वेदपु विद्यते। महाभारत शांतिपर्वमें पितामह भीष्म धर्मराज प्रवृत्त होना क्रमको रखता है-अत: व्रत समिति और युधिप्टिरस कहते है गुप्तिकी प्रवृत्तिको प्राप्त होनेवाला पापसे निवृत्त होता है (३) एवं जो णिश्चयदो, जाणदि दवाणि सव्वपज्जाए। पुनः शुभसे भी संयमी ध्यानी आत्मसात हाते हुए शुद्ध सोसट्टिोद्धो, जो संकदि सोहु कुटिटो ॥३२३॥ निरपराध-रत्नत्रयरूप परिणत होते हुए-सहकारी कारण के पूर्ण होने पर मुक्त होता है-(१०) क्रमके बिना शुद्धोपसुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्य सुहजोगस्स गिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि ॥३॥ योग और मुक अवस्थाको आत्मा नहीं पा सकता है। -कुन्दकुन्द द्वादशनुप्रेक्षा न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून सद्गी:इत्यादि सागारधर्मामृत
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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