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________________ किरण ४। सम्यग्दृष्टि और उसका व्यवहार [११७ वस्तुके स्वरूपका विस्तृत विवेचन किया गया है और नट तथा उसकी कलाके दृष्टान्त द्वारा विषयका स्पष्टी करण किया गया है। ग्रन्थ कर्ताकी अन्य क्या कृतियां हैं। यह कुछ ज्ञात नहीं होता । प्राप्त होने पर उनका भी परिचय बादको दिया जावेगा। सम्यग्दृष्टि और उसका व्यवहार (क्षुल्लक सिद्धिसागर जी) नेत्र में पीडा वगैरहके रहने पर जैसे दष्टि ठीक नहीं होती करनेके लिए भी दिया है . ये कहते हैं कि :-व्यवहार है वैसे ही जीवकी श्रद्धा जब तक निरपेक्षावादक रोगले अभूतार्थ है और निश्चय भृतार्थ है इस प्रकारका दुरभिनिवेश युक्त होती तब तक वर श्रद्धा वास्तविक श्रदा नहीं होती है नहीं रखना चाहिए कि यथार्थ बोध या स्याद्वादका आश्रय किन्तु जब वह उससे रहित म्याद्वादसे युक्त होनी है नब वही करनेवाला जीव ही मिथ्यान्टिसे सम्यग्दृष्टि हो सकता दृष्टि सम्यग्दृष्टि हो जाती है। उस सापेक्षवाद युक्त श्रद्धा है-अथवा अभूतार्थको अभृतार्थ और भूतार्थको भूतार्थ आत्मा कञ्चन अभिन्न है अतः वह पाल्मा भी सम्यग्दृष्टि मानने वाला मम्यग्दृष्टि है ऐसा अर्थ लेने पर वह 'दु' शब्द कहलाती है। दुरभिनिवेशके कारण जीय नीव्रतम अनंतानु- संयोजक भी है३। अभिनिवेशसं युद्ध व्यवहार प्रभूतार्थ है बन्धी कपायस महिन होना है उसमे उसके मनमें अममत्व तथा शुद्धनय - सम्यग्नय - दुर्राभानवेशरहितनय-मापेक्षनय रूप पीड़ा रहनी है - वह पीडा उसकी श्रद्वारूप दृष्टि ज्ञान मापे सयुक्रि या सापेक्षन्याय भूतार्थ है. इस प्रकारसे और आचरणको मिथ्या बना देता है - किन्तु उस दुरभि- प्रमाण-नयामक युक्रिका या भूतार्थका प्राश्रय करनेवाला निवेशके दूर होने पर मनको समत्व होता है, पीडा दूर हो जीव सम्यग्दृष्टि होना है। जानी, दृष्टिमें समाचीनता पा जाता है। ज्ञान सच्चा ज्ञान हो सम्यग्दृष्टिको दुर्गतिका भय नहीं होना चूकि वह जाना है, और याचरण अपने योग्य मदाचारमें परिणत हो सम्यक्त्वकी अवस्थामें दुर्गानका बन्ध नहीं करता है किन्तु जाता है। सम्यक्त्वरूपी मुल धनका संरक्षण हो वैस प्रयत्न करता है. ___ कोई जीव निश्चयको भृनार्थ और व्यवहारको अभू- वि उसके छटने पर दुर्गतिका बन्ध भी हो सकता है. नार्थ मानना है किन्तु दुभिनिवेशके होनेसे वह भृनार्थका- वह इन्द्रिय नोइन्द्रियके विषयों और श्रम-स्थावरकी हिंमास यथार्थ वस्तुस्थितिको-नहीं मानता है अतः प्रायः वह संसार विरक्र नहीं है और न उममें प्रवृत्त ही होता है। वह युक्र हे - मिथ्यादृष्टि है । विषयामा भी होता है महा प्रारंभमें भी लगा रहता है व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकारके समीचीन नयोंको नो भी वह उनको हेय मानता है . अतः न्यायोचित विषयाअकलङ्क निश्चय-प्रात्मक बतलाते हैं - इस विषयमें न्याय- सक्रि और प्रारंभमें हेय बुद्धि होनेसे अन्याय और अभच्य कुमुदचन्द्रका नय-सम्बन्धी विवेचन मनन करने योग्य है। को भी सेवन नहीं करता है और उन्हें हेय मानता है"। भगवान् कुन्दकुन्दनं ममयमारकी ग्यारहवीं गाथामें यह अर्थ जीवकाण्ड५ की २९वीं गाथाके अपि शब्दसे जो 'दु' शब्दका प्रयोग किया है वह दुरभिनिवेशके निषेध- (३) व्यवहारोऽभूयत्थो भूयायो देसिदो दु सुद्धणो । (१) एकान्तधमाभिनिवेशमूला रागादयोऽहंकृतिजा जनानाम् भूदयमम्मिदो खलु सम्माइटी हवह जीवो ॥११॥ एकान्तहानाच्च म यत्तदेव, स्वाभाविकत्वाच्च सममनस्ते । प्रमाणनयामिका युक्रिया॑ यः शुद्धनयः । -युक्त्यनुशामने, स्वामिसमन्तभद्रः (४) णो इंदियेसु विग्दो णो जीवे थावर तसे वापि । (२) निश्चयमिहभूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थ । जो महहदि जिणुतं मम्माइट्ठी अविरदो सो ॥२६॥ . गो. जीवकाण्ड भूतार्थ बोधविमुखः प्राय: सर्वोऽपि संमारः। (१) विमयामत्तोवि. सया मम्बारंभेसु बट्टमायो वि, -पुरुषार्थसिन्द्व युपाये अमृतचन्द्रः (इदि) मन्वं हेयं मण्यादे, एमो मोहविलामो इदि । मृदयमा
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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