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दिल्ली और योगिनीपुर नामोंकी प्राचीनता
(लेखक-अगरचन्द नाहटा) अनेकान्तके वर्ष १३ अंक १ में पं० परमानन्दजी पूर्व भी दिल्ली नाम प्रसिद्ध व सिद्ध होता है। शास्त्रीका 'दिल्ली और उसके पांच नाम' शीर्षक लेख जोडशीपर या योगिनीपरकी प्राचीनताके सम्बन्धप्रकाशित हुआ है। उसमें आपने १ इन्द्रप्रस्थ २ दिल्ली में पं० परमानन्दजीने पंचास्तिकायकी सं० १३२६ की ३ योगिनीपुर या जोइणीपुर, ४ दिल्ली और ५ जहां- लिखित प्रशस्ति उधृत करते हुए लिखा है कि 'योगिनाबाद-इन पांच नामोंके सम्बन्धमें अपनी जानकारी नीपर का उल्लेख अनेक स्थलों पर पाया जाता है। प्रकाशित की है। इनमेंसे जहांनाबाद नाम तो बहुत 'जिनमें सं०१३२६ का उल्लेख सबसे प्राचीन जान पीछेका और बहुत कम प्रसिद्ध है और इन्द्रप्रस्थ पड़ता है। पर श्वेताम्बर साहित्यसे इस नामकी पुराना होने पर भी जनसाधारणमें प्रसिद्ध कम ही प्राचीनता सं०१००० के लगभग जा पहुचती हैं और रहा है। साहित्यगत कुछ उल्लेख इस नामके जरूर इस नामकी प्रसिद्धिका कारण भी भली भांति स्पष्ट मिलते हैं चौथा दिल्ली और दिल्ली वास्तवमें दोनों
हो जाता है। इसलिए यहां इस नामके सम्बन्धमें एक ही नाम हैं। दिल्लीका उपभ्रंश हो जनसाधारण- विशेष प्रकाश डाला जा रहा है। के मुखसे बदलता-बदलता दिल्ली बन गया है। वास्तव में
संवत् १३०५ में दिल्ली वास्तव्य साधु साहुलिके उसका भी कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। कई लोगोंकी पत्र हेमाको अभ्यर्थनासे खरतरगच्छीय जिनपति सरिके जो यह कल्पना है कि दिलू राजाके नामसे दिल्लीका शिष्य विदवर जिनपालोपाध्यायके 'युगप्रधानाचार्य
" हुआ, पर वास्तवम यह एक भ्रातार मन- गुर्वावली' नामकर ऐतिहासिक ग्रन्थकी रचना की भारगढन्त कल्पना है। दिलू राजाका वहां होना किसी भी तीय साहित्यमें संवतानक्रम और तिथिके उल्लेखवार इतिहाससे समर्थित नहीं, अत एव दिल्ली और योगिनी-पोकताका सिलसिलेवार वर्णन करनेवाला यह पुर ये दोनों नाम ही ऐसे रहते हैं, जो करीब एक एक ही अपर्व प्रन्थ है। रचयिताके गरु जिनपतिसरिहजार वर्षों से प्रसिद्ध रहे हैं, अतः इनकी प्राचीनताके के गुरु जिनचन्दसूरि जो कि सुप्रसिद्ध जिनदत्तसूरिके सम्बन्धमें ही प्रस्तुत लेख में प्रकाश डाला जायगा।
शिष्य थे , का जीवनवृत्त देते हुए संवत् १२२३ में दिल्ली नामकी प्राचीनताके सम्बन्धमें पं० परमा
उनके दिल्ली-योगिनीपुर (वहांके राजा मदनपालके नन्द जीने संवत् ११८६ के श्रीधर-रचित पाश्वेनाथ- अनरोधसे) पधारनेका विवरण दिया है। यहां उसका चरित्र में इस नामका सर्व प्रथम प्रयोग हुश्रा है
आवश्यक अंश उद्धृत किया जाता है:ऐसा सूचित करते हुए लिखा है कि "इससे पूर्व के साहि
ततःस्थानात्प्रचलितान् पृष्ठगामे संघातेन सहात्यमें उक्त शब्दका प्रयोग मेरे देखने में नहीं आया।"
गतान् श्रीपूज्यान् श्रुत्वा ढिल्लीवास्तव्य ठ• लोहर यद्यपि 'गणधरसार्द्धशतकबृहवृत्ति' जिसकी रचना
सा० पाल्हण-सा. कुलचन्द्र सा• गृहिचन्द्रादि संघ सं० १२६५ में हुई है, उक्त पार्श्वनाथचरित्रके पीछेकी
मुख्य श्रावका महता विस्तेरण वन्दनार्थ सम्मुखं प्रचारचना है, पर उक्त ग्रन्थमें ग्यारहवीं शताब्दीके वर्द्ध
लिताः । मानसूरिका परिचय देते हुए उनके 'ढिल्लो, बादली'
x पूर्ववर्ती तो तब होता, जब उसी समयके बने हुए आदि देशों में पधारनेका उल्लेख किया है।
प्रथमें इन नामोंका उल्लेख हो, यों तो अनेक विषयों के -स्वाचार्याः नु ज्ञातः कतिपययतिपरिवृतः ढिल्ली- अनेक उल्लेख मिलते है। बादली-प्रमुखस्थानेषु समाययो ।' इसीसे ग्यारहवों अच्छा होता यदि लेखक महानुभाव सं० १०१० या शताब्दीमें भी इस नगरके पाश्ववतीं प्रदेशको दिल्ली उससे पूर्ववर्ती ग्रन्थमें उल्लिखित 'दिल्ली' शब्दके प्रयोगका प्रदेश कहते थे, ज्ञात होता है। आचार्य वर्तमानसूरि उल्लेख दिखलाते ।
-सम्पादक रचित उपदेशपदटीका सं० १०५५ की प्राप्त है और यह देखें भारतीयविद्या वर्ष, पृष्ठ । में प्रकाशित घटना उससे भी पहले की है। अतः सं० १०५० से हमारा लेख ।
हवी शतामा बादली
में उनका