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किरण ५ ]
किया था कि मिध्यादृष्टिशीयोंके मिध्यात्यके उदयमें जो कई कार-ममकारके परिणाम होते हैं उन परिणामोंसे उत्पन्न रागादिक यहाँ विवधित है— जो कि मिध्यापके कारण 'अज्ञानमय' होते एवं समतामें बाधक पडते हैं। वे रागादिक यहां विवचित नहीं हैं जोकि एकान्तधर्माभिनिवेशरूप मिथ्यादर्शनके अभाव में चारित्रमोहके उदय-वश होते हैं और जो ज्ञानमय तथा स्वाभाविक होने से न तो जीवादिकके परिज्ञानमैं बाधक है और न समता - जीतरागवाकी साधना ही बाधक होते हैं। और इस तरह कानजी स्वामीपर घटित होनेवाले आरोपका परिमार्जन किया था।
श्रीहीराचन्द बोहराका नम्र निवेदन
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इन सब बातों तथा इस बात से भी कि कानजीस्वामीके चित्रोंको अनेकान्त गौरव के साथ प्रकाशित किया गया है यह बिल्कुल स्पष्ट है कि कानजी स्वामीके व्यक्तित्वक प्रति अपनी कोई बुरी भावना नहीं, उनकी वाक्परिणति एवं वचनन्दति सदोष जान पड़ती है, उमीको सुधारने तथा ग़लतफहमी को न फैलने देने लिये ही सद्भावनापूर्वक उक लेख लिखनेका प्रयत्न किया गया था । उसी सद्भावनाको लेकर लेखके पिछले तृतीय भाग) में इस बातको स्पष्ट करके बतलाते हुए कि श्री कुन्दकुन्द धीर स्वामी ममन्तभद्र जैसे महान आचार्याने पूजा-डान प्रनादिरूपमाचार (सम्यक्चारित्र) पद्विषयक शुभभायोको धर्म बतलाया हैजैनधर्म अथवा जिनशासनके अंगरूपमें प्रतिपादन किया है। अतः उनका विरोध ( उन्हें निशान बाह्यकी वस्तु एवं जिनशासनमे अधर्म प्रतिपादन करना) जिनशासनका विरोध है, उन महान आचार्यका भी विरोध है और साथ ही अपनी उन धर्मप्रवृतियों भी वह विरुद्ध पड़ता है, जिनमें शुभभावोंका प्राचुर्य पाया जाता है, कानजी स्वामी सामने एक समस्या हल करनेके लिये रस्सी थी और उसके शीघ्र हल होने की जरूरत व्यक्त की गई थी, जिससे उनकी कथनी और करणी में जो स्पष्ट अन्तर पाया जाता है उसका सामंजस्य किसी तरह बिठलाया जा सके। साथ ही, उन पर यह प्रकट किया था कि उन्होंने जो ये शब्द कहे हैं कि "जो जीव पूजादिकं शुभरागको धर्म मानते हैं उन्हें 'लौकिक' और 'अन्यमती' कहा है" उनकी लपेट में जाने-अनजाने श्री कुन्दकुद, ममन्तभद्र, उमास्वाति, सिद्धसेन पूज्यपाद अकलंक और विद्यानन्दादि सभी महान् आचार्य का जाते है। क्योंकि उनमें से किसी भी शुभभावोंका जैनधर्म (जिन
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शासन) में निषेध नहीं किया है, प्रत्युत इसके अनेक प्रकारसे उनका विधान किया है और इससे उनपर (कानजी स्वामीपर) यह श्रारोप आता है कि उन्होंने ऐसे चोटीके महान् जैनाचार्योंको 'लोकिकजन' तथा 'अन्यमती' कह कर अपराध किया है, जिसका उन्हें स्वयं प्रायश्चित्त करना चाहिये ।
इसके सिवा, उनपर यह भी प्रकट किया गया था "कि अनेक विद्वानोंका आपके विषय में अब यह मत हो चला है कि आप वास्तवमें कुन्दकुन्दाचार्यको नहीं मानते और न शमी समन्तभद्रजैसे दूसरे महान् जैन आचार्योको ही वस्तुतः मान्य करते हैं-यों ही उनके नामका उपयोग अपनी किसी कार्यसिद्धिके लिए उसी प्रकार कर रहे हैं जिस प्रकार कि सरकार अक्सर गांधीजीके नामका करती है और उनके सिद्धान्तों को मानकर नहीं देती; और इस तरह दूसरे बड़े आरोप की सूचना की गई थी। साथ ही अपने परिचयमें आप कुछ लोगोंकी उस श्राशंकाको भी व्यक्त किया गया था कानजी स्वामी और उनके अनुयाइयोंकी प्रवृत्तियों को देखकर हमें उठने लगी हैं और उनके मुखसे ऐसे शब्द निकलने लगे हैं कि 'कहीं जैन समाजमें यह चौथा सम्प्रदायनी कायम होने नहीं जा रहा है, जो दिगम्बर श्वेतास्वर और स्थानक वामी सम्प्रदायों की कुछ-कुछ ऊपरी बातों को लेकर तीनोंक मूलमें ही कुठाराघात करेगा' ( इत्यादि) । और उसके बाद यह निवेदन किया गया था :
"यदि यह आशका ठीक हुई तो निसन्देह भारी चिन्ताका विषय है और इस लिए कानजी स्वामीको अपनी पोजीशन और भी स्पष्ट कर देनेकी ज़रूरत है। जहां तक में समझता हूं कानजी महाराजका ऐसा कोई आमाशय नहीं होगा जो उक्त चौथा जैन साम्प्रदायके जन्मका कारण हो। परन्तु उनको प्रपचन-शैलीका जो रुत चलरहा है और उनके अनुयायियों की जो मिशनरी प्रवृत्तियां प्रारम्भ हो गई हैं उनसे बैसी आशंकाका होना स्वाभाविक नहीं है और न भविष्य में जैसे समदायको सृष्टिको ही अस्वाभाविक कहा जा सकता है । श्रतः कानजी महाराजकी इच्छा यदि सचमुच चौथे सम्प्रदायको जन्म देने की नहीं है, तो उन्हें अपने प्रवचनों के विषयमें बहुत ही सतर्क एवं सावधान होने की जरूरत हैउन्हें केवल वचनों द्वारा ही अपनी पोजीशनको स्पष्ट करनेकी जरूरत नहीं है, बल्कि व्यवहारादिक द्वारा भी ऐसा सुख प्रयत्न करने की जरूरत है जिससे उनके निमित्तका पाकर बेसा चतुर्थ सम्प्रदाय भविष्य में न होने पाये, साथ ही बोक
खड़ा