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________________ १३८ अनेकान्त [ वर्ष १३ सकती। इस स्पप्टीकरणमें स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन और व्यक्तिबके प्रति मेरा बहुमान है-आदर है और मैं आपके अकलंकदेव जैसे महान् प्राचार्योंके कुछ वाक्योंको भी उद्धत सल्मंगको अच्छा ममझता हूं, परन्तु फिर भी सत्यके अनुरोध किया गया था, जिनसे जिनशासनका बहुत कुछ मूल स्वरूप से मुझे यह मानने तथा कहने के लिये बाध्य होना पड़ता है सामने प्राजाता है, और फिर फलितार्थरूपमें विज्ञपाठकोंसे कि आपके प्रवचन बहुधा एकान्तकी ओर ढले होते हैं--उनमें यह निवेदन किया गया था कि जाने-अनजाने वचनानयका दोष बना रहता है। जो बचन"स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन और अकलंकदेव जैसे व्यवहार समीचीननय-विवक्षाको साथमें लेकर नहीं होता महान् जैनाचार्योंके उपयुक्त वाक्योंस जिनशासनकी विशेष- अथवा निरपेक्षनय या नयोंका अवलम्वन लेकर प्रवृत्त किया ताओं या उसके सविशेषरूपका ही पता नहीं चलता बल्कि जाता है वह वचनानयके दोषमे दृक्षित कहलाता है।" उस शासनका बहुत कुछ मूल स्वरूप मूर्तिमान होकर सामने साथ ही यह भी प्रकट किया था कि-"श्री कानजीपाजाता है। परन्तु इस स्वरूप-कथनमें कहीं भी शुद्धामाको स्वामी अपने वचनों पर यदि कहा अंकुश रक्खें, उन्हें निरजिनशासन नहीं बतलाया गया, यह देखकर यदि कोई पेच निश्चय नयके एकान्तकी ओर ढलने न दें, उनमें निश्चयसज्जन उक्त महान् प्राचार्योको, जो कि जिनशामनके स्तम्भ- व्यवहार दोनों नयोंका समन्वय करते हए उनके वक्तव्योंका स्वरूप माने जाते हैं, 'लौकिजन' या 'अन्यमती' कहने लगे सामंजस्य स्थापित करें, एक दूसरेके वक्रव्यको परस्पर उपकारी और यह भी कहने लगे कि उन्होंने जिनशासनको जाना मित्रों के वक्तव्यको तरह चित्रित करें-न कि स्व-परप्रणाशीया सममा तक नहीं तो विज्ञ पाठक उसे क्या कहेंगे, किन शत्रुओंके वक्रव्यकी तरह-और साथ ही कुन्दकुन्दाचार्य के शब्दोंसे पुकारेंगे और उसके ज्ञानकी कितनी सराहना 'ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेोहदा भावे' इस वाक्य करेंगे (इत्यादि)" को खास तौरसे ध्यानमें रखते हुए उन लोगोंको जो कि अपकनजी स्वामीका उक्त प्रवचन-लेख जाने-अनजाने से रमभावमें स्थित हैं-वीतराग चारित्रकी सीमातक न पहुँच महान् प्राचार्योंके प्रति बैसे शब्दोंक संकतको लिए हुए है, जो कर साधक-अवस्थामें स्थित हुए मुनिधर्म या श्रावकधर्मका मुझे बहुत ही असह्य जान पड़े और इसलिए अपने पाम पालन कर रहे हैं-व्यवहारनयक द्वारा उस व्यवहारधर्मका समय न होते हुए भी मुझे उक्त लेख लिखनेके लिए विवश उपदेश दिया करें जिस तरणोंपायके रूपमें 'तीर्थ' कहा होना पड़ा, जिसकी सूचना भी प्रथम लेख में निम्न शब्दो जाता है, तो उनके द्वारा जिनशासनकी अच्छी संवा हो द्वारा की जाचुकी है मकनी है और जिनधर्मका प्रचार भी काफी हो सकता है। " जिनशासनके रूपविषयमं जो कुछ कहा गया है अन्यथा, एकान्तकी ओर ढलजानेसे तो जिनशासनका विरोध वह बहुत ही विचित्र तथा अविचारितरम्य जान पड़ता और तीर्थका लोप हो घटित होगा।" है। सारा प्रवचन आध्यात्मिक एकान्तकी और ढला इसके सिवा समयसारकी दो गाथाओं नं० २०१, २०२ हुआ है, प्रायः एकान्तमिथ्यात्वको पुष्ट करता है और जिन- को लेकर जब यह समस्या खड़ी हुई थी कि इन गाथाओंके शासनके स्वरूप-विषयमें लोगोंको गुमराह करनेवाला है। अनुसार जिसके परमाणुमात्र भी रागादिक विद्यमान हैं वह इसके सिवा जिनशासनके कुछ महान् स्तम्भोंको भी इसमें प्रात्मा अनात्मा (जीव-जीव) को नहीं जानता और जो "लौकिकजन" तथा "अन्यमती" जैसे शब्दों से याद किया पाल्मा अनात्माको नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो है और प्रकारान्तरसे यहां तक कह डाला है कि उन्होंने सकता । कानजी स्वामी चूकि राग-रहित वीतराग नहीं और जिनशासनको ठीक समझा नहीं, यह सब असह्य जान पड़ता उनके उपदेशादि कार्य भी रागसहित पाये जाते हैं, तब क्या है। ऐसी स्थितिमें समयाभावके होते हुए भी मेरे लिये यह रागादिकके सद्भावके कारण यह कहना होगा कि वे प्रात्मा आवश्यक हो गया है कि में इस प्रवचनलेख पर अपने अनात्माको नहीं जानते और इस लिए सम्यग्दृष्टि नहीं हैं विचार व्यक्त करूं (इत्यादि)" इस समस्याको हल करते हुए मैंने लिखा था कि 'नहीं कानजी स्वामीके व्यक्रिस्वके प्रति मेरा कोई विरोध नहीं कहना चाहिए' और फिर स्वामी समन्तभद्रके एक बाक्यकी है, मैं उन्हें आदरकी इप्टिसे देखता हूं: चुनांचे अपने लेखके सहायतासे उन रागादिकको स्पष्ट करके बतलाया था जो कुन्दवसरे भागमें मैंने यह व्यक्त भी किया था कि-"आपके कुन्दाचार्यको उक्त गाथाओं में विवक्षित हैं-अर्थात् यह प्रकर
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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