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________________ अनेकान्त [वर्ष १३ दयमें जो आशंका उत्पन्नईहै वह दूर हो जाय और जिन और दूसरी भी कुछ कल्पनायोंको अवसर मिलता है। विद्वानोंका विचार उनके विषमें कुछ दूसरा हो चला है वह अस्तु उनका इस विषयमें यह मौन कुछ अच्छा भी बदला जाय । आशा है अपने एकप्रवचनके कुछ अंशों पर मालूम नहीं देता-उमसे भविष्यमें हानि होनेकी भारी सद्भावनाको लेकर बिखे गये इस आलोचनात्मक लेखपर संभावना है। भविष्यमें यदि वैसा कोई चौथा सम्प्रदाय कानजी महाराज सविशेष रूपसे ध्यान देनेकी कृपा करेंगे और स्थापित होने को हो तो स्वामीजीके शिष्य-प्रशिष्य कह उसका सत्फल उनके स्पष्टीकरणात्मक वक्रव्य एवं प्रवचन- सकते हैं कि यदि स्वामीजी को यह सम्प्रदाय इष्ट न होता शैली की समुचित तब्दीजोके रूपमें शीघ्र ही दृष्टिगोचर तो वे पहले ही इसका विरोध करते जब उन्हें इसकी कुछ होगा।" सूचना मिली थी। परन्तु वे उस समय मौन रहे हैं अतः मेरे इस निवेदन को पाँच महीनेका समय बीत गया; 'मोनं सम्मति-लक्षणं' की नीतिके अनुसार वे इस चौथे परन्तु खेद है कि अभीतक कानजीस्तामीकी अोरम उनका सम्प्रदायकी स्थापनासे सहमत थे, ऐसा समझना चाहिए। कोई वक्रव्य मुझे देखनेको नहीं मिला, जिससे अन्य बातोंको साथ ही किसी विषयमें परस्पर मत-भेद होने पर उन्हें यह छोड़कर कमसे कम इतना तो मालूम पड़ता कि उन्होंने अपनी भी कहने का अवसर मिल सकेगा कि स्वामीजी कुन्दकुन्दापोजीशन का क्या कुछ स्पष्टीकरण किया है, उस ममस्याका दिप्राचार्योका गुणगान करते हुए भी उन्हें वस्तुत: जैनधर्मी क्या हल निकाला है जो उनके सासने रखी गई है, उन प्रारो- नहीं मानते थे-'लौकिक जन' नथा, 'अन्यमती' समझते पोंका किसरूपमें परिमार्जन किया है जो उन पर लगाये गये हैं, थे, इसीस जब उनपर उन महान् प्राचार्यों को वैसा कहनेका और लोकहृदयमें उठी एवं मुह पर पाई हुई आशंका को अारोप लगाया गया था तो वे मान हो रहे थे-उन्होंने निमल करनेके लिए क्या कुछ प्रयत्न किया है। मैं उनका कोई विरोध नहीं किया था। बराबर श्रीकानजी महाराजके उत्तर तथा वक्रव्यकी प्रतीक्षा ऐसी वर्तमान और सम्भाव्य वस्तु-स्थिति में मेरे समूचे करता रहा हूँ और एक दो वार श्री हीराचन्द जी बोहराको लेखकी दृष्टिको ध्यानमें रखते हुए यद्यपि श्रीबोहराजीक लिये भी लिखा चुका हूं कि वे उन्हें प्रेरणा करके उनका बकवादि प्रस्तुत लेख लिखने अथवा उसको छापने का आग्रह करनेके शीघ्र भिजवाएं, जिससे लगे हाथों उसपर भी विचार किया लिए कोई माकल वजह नहीं थी फिर भी उन्नन उसको जाय और अपनेसे यदि कोई गलती हुई हो तो उसे सुधार लिखकर जल्दी आनकान्त छापलेका सो गाग्रा किया है यह दिया जायः परन्तु अन्तमें बोहराजीक एक पत्रको पढकर एक प्रकारने 'मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त' की नीतिको मुझे निराश हो जाना पड़ा। जान पड़ता है कानजीस्वामी __ चरितार्थ करता है। सब कुछ पी गये है-इतने गुरुतर धारापों की भी स कळ शंकानोका उठाकर मुझसे उनका अवांछनीय उपेक्षा कर गये हैं - और कोई प्रत्युत्तर, समाधान चाहा गया है और फिर सबूतक रूपमें कतिपय स्पष्टीकरण या वक्रव्य देना नहीं चाहतं । वे जिस प्रमाणोंको-अष्टपाडके टीकाकार पं० जयचन्दजी और पदमें स्थित है उसकी दृष्टिसे उनकी यह नीति बड़ी ही मोक्षमार्गक रचयिता पं. टोडरमलजीक वाक्योंको साथ ही घातक जान पड़ती है। जब वे उपदेश देते हैं और उसमें कुछ कानजी स्वामीक वाक्योंको भी उपस्थित किया गया है, दूसरोंका खण्डन-मण्डन भी करते हैं तब मेरे उक्त लेखके जिससे मैं शंकाओंका समाधान करते हुए कहीं कुछ विचलित विषयमें कुछ कहने अथवा अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने न हो जाऊँ इस कृपाक लिए में श्री बोहरा जी का के लिये उन्हें कौन रोक सकता था ? वक्तव्य तो गलतियों- प्राभारी हैं। उनकी शंकाओंका समाधान धागे चल कर गलतफहमियोंको दूर करने के लिये अथवा दूसरोंके समाधान किया जायगा, यहाँ पहले उनके प्रमाणों पर एक दृष्टि डाल की दृष्टिसे बड़बड़े मन्त्रियों, सेनानायकों, राजेमहाराजों, राष्ट्र- लेना और यह मालूम करना उचित जान पड़ता है कि वे पतियों और धर्म-ध्वजियों तक को देने पढ़ते हैं तब एक कहां तक उनके अभिमत विषयकं समर्थक होकर प्रमाण ब्रह्मचारी श्रावकके पदमें स्थित कानजी स्वामीके लिये ऐसी कोटिमें ग्रहण किये जासकते हैं। कौन बात उसमें बाधक है यह कुछ समझमें नहीं आता ! श्रीकुन्दकुन्दके भावपाहुडकी ८३वीं गाथाके ५० जयबाम्ब न देनेसे उल्टा उनके सहंकारका द्योतन होता है चन्दजीकृत 'भावार्थ को डबल इचर्टेडकामाज़ " -"
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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