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मुक्ति-गान
मनु 'ज्ञानार्थी' 'साहित्य - रत्न'
राही ! तू अभिशापों को वरदान बनाता चल । जीवन है; उत्थान-पतन तो होते हैं पल-पल में ; सागर है; इसमें ज्वार-भाट तो उठते हैं क्षण-क्षण में ; यहां प्रणय में सदा विरह की पीर छुपी रहती है ; और सुखों के निर्भर से भी व्यथा-सरित् वहती है : यह सुख-दुख का घटी यन्त्र चलता है; तू भी चल ;
राहो ! तू अभिशापों को वरदान बनाता चल । मान और अपमान यहाँ की रीति यही निश्चल ; दुर्बल को पद-घातः सबल को होता है पद-दान यहां पर यहां व्यक्ति को प्रगतिः व्यक्ति में द्वेष-भाव जनती है ; यहां व्यक्ति की शक्ति कुचलती श्रान्त पथिक के पर है ;
जग के छल को नमस्कार कर; निश्छल बनता चल राही ! तू अभिशापों को वरदान बनाता चल ।
जग की उलझन युग-युग से चलती आयी है यों ही ; स्वार्थ व्यक्ति में जगा रहा है 'अहं' सदा से यों ही ; तू अपना पथ देख; जन्म के बाद बालपन आता ; चल-यौवन; फिर शुभ्र - केशः फिर मृत्यु बुलावा आता ; श्रो नौजवान ! अनमिल यौवन का मोल चुकाता चल ; राही! तू अभिशापों को वरदान बनाता चल ।
आज तुझे हग-ज्ञान-चरण की नाव मिली सागर में; मनन और चिन्तन के दृढ़ पतवार मिले ज्वारों में: कर्म-बन्ध को खोल; तोड़ झककोर, अरे ! तू शक्तिमान है; चल दे आत्म-विभोर पन्थ का पास अरे! अवसान है ; अगम पन्थ को सुगम बनाः शिव-नगरी में पद धर ; राही! तू अभिशापों को वरदान बनाता चल ।