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________________ वार्षिक मूल्य ६) विश्व तत्त्व-प्रकाशक वर्ष १३ किरण ५ ॐ अर्हम् का नीतिविरोधसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त ॥ वस्तुतत्त्व-संघोतक एक किरण का मूल्य | ) वीर सेवामन्दिर, C/o दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली मार्गशीर्ष, वीर नि० संवत २४८१ वि० संवत २०११ समन्तभद्र- भारती देवागम द्वैकान्त-पक्षेऽपि दृष्टो मेदो विरुध्यते । कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात्प्रजायते ॥ २४ ॥ 'यदि अद्वैत एकान्तका पक्ष लिया जाय-यह माना जाय कि वस्तुतत्त्व सर्वथा दुई ( द्वितीयता ) से रहित एक ही रूप है - तो कारकों और क्रियाओंका जो भेद ( नानापन ) प्रत्यक्ष प्रमाणसे जाना जाता अथवा स्पष्ट दिखाई देनेवाला लोकप्रसिद्ध ( सत्य ) है वह विरोधको प्राप्त होता ( मिथ्या ठहरता ) हे -कर्ता, कर्म, करणादि रूपमें जो सान कारक अपने असंख्य तथा अनन्त भेदों को लिये हुए हैं उनका वह भेद-प्रभेद नहीं बनता और न क्रियाओं का चलना-ठहरना, उपजना-विनशना, पचाना-जलाना, सकोडना पम्पारना, खाना-पीना और देखना- जानना आदि रूप कोई विकल्प ही बनता है: फलतः सारा लोक-व्यवहार बिगड़ जाता है । ( यदि यह कहा जाय कि जो एक है वही विभिन्न कारकों तथा क्रियाओंकं रूपमें परिणन होता है तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि) जो कोई एक है- सर्वथा अकेला एवं महा हैं - वह अपने से ही उत्पन्न नहीं होता । - उपका उम रूपमें जनक और जन्मका कारणादिक दूसरा ही होता है, दूसरेके अस्तित्व एवं निमित्तके बिना वह स्वयं विभिन्न कारकों तथा क्रियाओंके रूपमें परिणत नहीं हो सकता । कर्म- द्वैतं फल- द्वैत लोक- द्वैतं च नो भवेत् । विद्याऽविद्या-द्वयं न स्याद्बान्ध मोच द्वयं तथा ॥ २५ ॥ '( सर्वथा श्रद्ध ेन सिद्धान्तके माननेपर) कर्म- द्वैत-शुभ-अशुभ कर्मका जोड़ा, फल- द्वैत पुण्य-पापरूप अच्छे-बुरे का जोड़ा और लोक द्वैन- फल भोगनेके स्थानरूप इहलोक - परलोकका जोड़ा नहीं बनता । इसी तरह ) विद्याविद्याका द्वैत (जोड़ा ) तथा बन्ध-मोक्षका द्वैत ( जोड़ा ) भी नहीं बनता । इन द्वौनों (जोड़ों) मेंसे किसी भी इतके मानने पर सर्वथा अद्वेतका एकान्त बाधित होता है। और यदि प्रत्येक जोड़ेकी किसी एक वस्तुका लोप कर दूसरी वस्तुका हो ग्रहण किया जाय तो उस दूसरी वस्तुके भी लोपका प्रसंग आता है; क्योंकि एकके बिना दूसरीका अस्तित्व नहीं बनता, और इस तरह भी सारे व्यवहारका लोप ठहरता है ।" नवम्बर १६५४
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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