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अनेकान्त
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[वर्ष १३
चारित्रसारके 'स्नत्रयाविर्भावार्थमिच्छानिरोधस्तपः' इस रहित प्रात्माके निज परिणाम) की प्राप्तिका भी अवसर होय वाक्यसे जाना जाता है। मुनियों तथा श्रावकोंके अपने-अपने है।" (भावपाहुड-टीका) बतोंके अनुष्ठान एवं पालनमें कितना ही इच्छाका निरोध "शुभोपयोग भए शुद्धोपयोगका यत्न करतो (शुद्धोपयोग) करना पड़ता है और इस दृष्टिसे भी उनका व्रताचरण होय जाय ।" (मोक्षमार्गप्रकाशक प्र.) तपश्चरणको लिये हुए है और 'तपसा निर्जरा च' इस यहाँपर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि सूत्रवाक्य के अनुसार तपसे संवर और निर्जरा दोनों होते हैं, मुनियों और श्रावकोंके शुद्धोपयोगका क्या स्वरूप होता है, यह सुप्रसिद्ध है।
इस विषयमें अपराजितसूरिने भगवती-आराधनाकी गाथा नं. ऐसी स्थितिमें यह नहीं कहा जा सकता कि सम्यग्दृष्टिके १८३४ को टीकामें कुछ पुरातन पद्योंको उद्धृत करते हुए उक्त शुभभाव एकान्ततः बन्धक कारण हैं। बल्कि यह स्पष्ट जो प्रकाश डाला है वह भी इस अवसर पर जान लेनेके
जाता है कि वे अधिकांशमें कर्मोंके संवर तथा निर्जराके योग्य है। होरालालजी शास्त्रीने उसे गत अनेकान्त कारण हैं।
किरण ८ में 'मुनियों और श्रावकोंका शुद्धोपयोग' शीर्षकके २शंका-यदि इन शुभ भावोंसे कर्मोकी संवर निर्जरा साथ प्रकट किया है। यहाँ उसके अनुवाद रूपमें प्रस्तुत होती है तो शुद्धभाव (वीतरागभाव) क्या कार्यकारी रहे? किये गये कुछ अंशोंको ही उद्धृत किया जाता है :यदि कार्यकारी नहीं तो उनका महत्व शास्त्रों में कसे वणित
जीवोंको नहीं मारूंगा. असत्य नहीं बोलू गा, ।
चोरी नहीं करूंगा, भागोंको नहीं भोगूंगा, धनको नहीं समाधान-शुभ भावोंसे कर्मोका संवर तथा निर्जरा
ग्रहण करूंगा, शरीरको अतिशय कष्ट होने पर भी रातमें होनेपर शुद्ध भावोंकी कार्यकारितामें कोई बाधा नहीं पड़ती,
नहीं खाऊँगा, मैं पवित्र जिनदीक्षाको धारण करके क्रोध, वे संवर-निर्जराके कार्यको सविशेषरूपसं सम्पन्न करने में
मान, माया और लोभके वश बहुदुख देने वाले प्रारम्भसमर्थ होते हैं । शुभ और शुद्ध दोनों प्रकारके भाव कर्मक्षयक
परिग्रहसे अपनेको युक्त नहीं करूंगा। इस प्रकार प्रारंभहेतु हैं। यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो कर्मोका क्षय हो
परिग्रहादिसे विरत होकर शुभकर्मक चिन्तनमें अपने चित्तको नहीं बन सकेगा; जैसा कि श्रीवीरसेनाचार्यके जयधवला-गत
लगाना मिद्ध अहन्त, प्राचार्य, उपाध्याय, जिनचैत्य, संघ निम्न वाक्यसे प्रकट हैसुह-सुद्ध-परिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुव
और जिनशासनकी भक्ति करना और इनके गुणोंमें बत्तीदो। (पृष्ठ ६)
अनुरागी होना तथा विषयास विरत रहना, यह मुनियोंका
शुद्धोपयोग है। इसके अनन्तर प्राचार्य वीरसेनने एक पुरातन गाथाको उद्धत किया है जिसमें “उवसम-खय-मिस्सया य
'विनीतभाव रखना, संयम धारण करना, अप्रमत्तभाव मोक्खयरा" वाक्यके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है रखना, मृदुता, क्षमा, प्रार्जव और सन्तोष रखना; श्राहार कि औपशमिक, सायिक और मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव भय मैथुन परिग्रह इन चार संज्ञाओंको, माया मिथ्यात्व कर्मक्षयके कारण हैं। इससे प्रस्तुत शंकाके समाधान के साथ और निदान इन तीन शल्योंको तथा रस ऋद्धि और सात पहली शंकाके समाधानपर और भी अधिक प्रकाश पड़ता
गौरवोंको जीतना, उपसर्ग और परीषदोंपर विजय प्राप्त है और यह दिनकर प्रकाशकी तरह स्पष्ट हो जाता है कि करना, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सरागसंयम धारण करना, शमभाव भी कर्मक्षयके कारण हैं। शुद्धभावोंका तो दश प्रकारके धर्मोका चिन्तवन करना, जिनेन्द्र-पूजन प्रादुर्भाव भी शुभभावोंका आश्रय लिये बिना होता नहीं। करना, पूजा करनेका उपदेश देना, नि:शंकिवादि इस बात को पं. जयचन्दजी और पं० टोडरमलजीने भी पाठ गुणोंको धारण करना, प्रशस्तरागसे युक्र तपकी भावना अपने निम्न वाक्योंके द्वारा व्यक्त किया है, जिनके अन्य रखना, पाँच समितियोंका पालना, तीन गुप्तियोंका धारण वाक्योंको बोहराजीने प्रमाणमें उद्धत किया है और इन करना, इत्यादि यह सब मुनियोका शुद्धोययोग है। वाक्योंका उद्धरण छोड़ दिया है।
मूल वाक्योंके लिये उक्त टीका ग्रंथ या अनेकान्तकी "भर शुभ परिणाम होय तब या धर्म (मोह-शोभसे उक आठवीं (फरवरी १९५५ को) किरण देम्वनी चाहिए।