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________________ वर्ष १३ श्रीहीराचन्द्रजी बोहराका नम्र निवेदन [२७३ यदि अनेक संज्ञाएँ हों तो उसमें बाधाकी कौन सी बात है? भाव सम्यक्चारित्रका अंग होनेसे धर्ममें परिगणित हैं। . एक-एक वस्तुकी भनेक अनेक संज्ञाघोंसे तो अन्य भरे पड़े जबकि मिथ्याइष्टिके वे भाव मिथ्याचारित्रका अंग होनेसे है, फिर धर्मको पुण्य संज्ञा देनेपर आपत्ति क्यों ? श्री- धर्ममें परिगणित नहीं है। यही दोनों में मोटे रूपसे अन्तर कुन्दकुन्दाचार्यने जब स्वयं पूजा-दान-बतादिको एक जगह कहा जा सकता है। जो जैनी सम्यग्दृष्टि न होकर मिथ्या'धर्म' लिखा है और दूसरी जगह 'पुण्य' रूपमें उल्लेखित दृष्टि हैं उनको क्रियाएँ भी प्राय: उसी कोटिमें शामिल हैं। किया है तब उससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि १०शंका-धर्म दो प्रकारका है-ऐसा जो आपने धर्मके एक प्रकारका उल्लेख करनेकी दृष्टिसे ही उन्होंने लिखा है तो उसका तात्पर्य तो यह हुआ कि यदि कोई पुषप्रसाधक धर्मको 'पुण्य' संज्ञा दी है। अतः दृष्टिविशेषके जीव दोनोंमेंसे किसी एकका भी प्राचरण करे तो वह वश एकको अनेक संज्ञाएँ दिये जाने पर शंका प्रयवा प्राश्चर्य मुक्रिका पात्र हो जाना चाहिए, क्योंकि धर्मका लक्षण की कोई बात नहीं। प्राचार्य समन्तभद्रस्वामीने यही किया है कि जो उत्तम शंका-यदि पुण्य भी धर्म है तो सम्यग्दृष्टि श्रद्धा- अविनाशी सुखका अविनाशी सुखको प्राप्त करावे वही धर्म है। तो फिर द्रव्यमें पुण्यको दण्डवत् क्यों मानता है? लिंगी मुनि मुक्तिका पात्र क्यों नहीं हुआ ? उसे मिथ्यात्व गुण स्थान ही कैसे रहा ? अापके लेखानुसार तो उसे मुक्रिकी समाधान-यदि सम्यग्दृष्टि श्रद्धा पुरयको दण्डवत् मानता है तो यह उसका शुद्धत्वको और बढ़ा हुप्रा रष्टि प्राप्ति हो जानी चाहिये थी? विशेषका परिणाम हो सकता है-व्यवहारमें वह पुण्यको समाधान-यह शंका भी कुछ बड़ी ही विचित्र जान अपनाता ही है और पुण्यको सर्वथा अधर्म तो वह कभी भी पढ़ती है। मैंने धर्मको जिस दृष्टिसे दो प्रकारका बतलाया नहीं समझता | यदि पुण्यको सर्वथा अधर्म समझे तो यह है उसका उल्लेख शंका के समाधान में भा गया है और उसके दृष्टिविकारका सूचक होगा क्योंकि पुण्यकर्म किसी उससे वैसा कोई तात्पर्य फलित नहीं होता। दयलिंगीकी उच्चतम भावनाकी रष्टिसे हेय होते हुए भी सर्वथा हेय कोई क्रियाएँ मेरे लेख में विवक्षित ही नहीं हैं। शंका के समाधानानुसार जब द्रव्यलिंगी मुनि ऊँचे दर्जेकी क्रियाएँ शंका-यदि शुभभाव जैनधर्म है तो अन्यमती करता हुआ भी शुद्धत्वके निकट नहीं तब वह मुनिका पात्र कैसे जो दान, पूजा, भक्ति आदिको धर्म मानकर उसीका उपदेश हो सकता है ? मुक्तिका पात्र सम्यग्दृष्टि होता है, मिथ्याष्टि देते हैं, क्या वे भी जैनधर्म समान हैं उनमें और जैन नहीं। मेरे लेखानुसार 'व्यलिंगी मुनिको मुक्तिकी प्राप्ति धर्ममें क्या अन्तर रहा? हो जानी चाहिये थी, ऐसा समझना बुद्धिका कोरा विपर्याय है। क्योंकि मेरे लेखमें सम्यग्दृष्टिके ही शुभ भाव विवक्षित समाधान-जैनधर्म और अन्यमत-सम्मत दान, मत दान, हैं-मिथ्यादृष्टि या द्रव्यलिंगी मुनिके नहीं । शंकाकारने पूजा, भकि आदिकी जो क्रियाएँ है वे रष्टिभेदको लिये हुए धर्मका जो लपण स्वामी समन्तभद्रकृत बतलाया है हैं और इसलिए बाह्यमें प्रायः समान होते हुए भी दृष्टिभेद- " हाष्टमद वह भी भ्रमपूर्ण है। स्वामी समन्तभद्रने धर्मका यह लक्षण . के कारण उन्हें सर्वथा समान नहीं कहा जा सकता । टिका । नहा कहा जा सकता । राष्टका नहीं किया कि 'जो उत्तम अविनाशीसुखको प्राप्त करावे वही सबसे बड़ा भेद सम्यक् तथा मिथ्या होता है। वस्तुतत्त्वको धर्म है।' उन्होंने तो 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा यथार्थं श्रद्धाको लिये हुए जो दृष्टि है वह सम्यग्दृष्टि है, जिसमें मम बिदुः, इस वाक्यके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् कारणविपर्यय स्वरूपविपर्यय तथा भेदाभेदविपर्ययके लिए चारित्रको धर्मका लक्षण प्रतिपादन किया है-उत्तम प्रविकोई स्थान नहीं होता और वह दृष्टि अनेकान्तात्मक होनी है, नाशी सखको प्राप्त करना तो उस धर्मका एक फलविशेष प्रत्युत हमके जो दृष्टि वस्तस्वकी यथाथ श्रद्धाको लिए हुए नहीं होती, वह सब मिथ्यादृष्टि कहलाती है, उसके माथ कारण- निःश्रेय प्रमभ्युदयं इत्यादि कारिका (१३.) में सूचित विपर्ययादि लगे रहते हैं और वह एकान्तदृष्टि किया गया है, जो उत्तम होत हए भी अविनाशी नहीं कही जाती है। सम्यग्दृष्टिके दान-पूजादिकके शुभ होता और जिसका स्वरूप 'पूजार्थाऽऽरवयवस' इत्यादि ® देखो, अनेकान्त वर्ष १३ किरण १ पृ.५ कारिका (१३१) में दिया हुआ है, जिसे मैंने अपने लेखमें
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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