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अनेकान्त
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उद्धत भी किया था, फिर भी ऐसी शंकाका किया जाना युक्त हुआ बल, परिजन, काम तथा भोगोंकी प्रचुरताके कोई अर्थ नहीं रखता।
साथ लोकमें अतीव उत्कृष्ट चौर आश्चर्यकारी बतलाया है। ११ शंका- धर्म मोक्षमार्ग है या संसारमार्ग? यदि और इसलिए वह धर्म संसारके उत्कृष्ट सुखका भी मार्ग है, शुभभाव भी मोक्षमार्ग है तो क्या मोक्षमार्ग दो हैं? यह समझना चाहिए। ऐसी स्थितिमें सम्यग्दृष्टिके शुभ
समाधान-धर्म मोक्षमार्ग है या संसारमार्ग, यह भावों को मोक्षमार्ग कहना म्याय-प्राप्त है और मंचमार्ग धर्मकी जाति अथवा प्रकृतिकी स्थिति पर अवलम्बित है। अवश्य ही दो भागों में विभक है-एकको निश्चयमोक्षमार्ग सामान्यत: धर्ममात्रको सर्वथा मोक्षमार्ग या संसारमार्ग नहीं और दूसरेको व्यवहारमोक्षमार्ग कहते हैं। निश्चयमोक्ष. कहा जा सकता । धर्म लौकिक भी होता है और पारलौकिक मार्ग साध्यरूपमें स्थित है तो व्यवहारमोक्षमार्ग उसके अर्थात् पारमार्थिक भी । गृहस्थोंके लिये दो प्रकारके धर्मका साधन रूपमें स्थित है। जैसा कि रामसेनाचार्य-कृत तस्वानुनिर्देश मिलता है-एक लौकिक और दूसरा पारलौकिकशासनके निम्न वाक्यसे भी प्रकट हैजिसमें लौकिक धर्म लोकाश्रित-लोककी रीति-नीतिके अनुसार मोक्षहेतुः पुनद्वैधा निश्चय-व्यवहारतः। प्रवृत्त-और पारलौकिक धर्म पागमाश्रित-पागमशास्त्रकी तत्राधः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥२८॥ विधि-व्यवस्थाके अनुरूप प्रवृत्त होता है, जैसा कि प्राचार्य माध्यकी सिद्धि होने तक साधनको साध्यसे अलग मोमदेवके निम्न वाक्यसे प्रकट है
नहीं किया जा सकता और न यही कहा जा सकता है कि द्वो हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । साध्य तो जिनशासन है किन्तु उसका साधन जिनशासनका लाकाश्रयो वेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः।। (यशस्तिलक) कोई अंश नहीं है। सच पूछा जाय तो साधनरूप मार्ग ही
लौकिकधर्म प्रायः संसारमार्ग है और पारलौकिक जैनतीथंकरोंका तीर्थ है-धर्म है, और उस मार्गका निर्माण (पारमार्थिक ) धर्म प्रायः मोक्षमार्ग । धर्म सुखका हेतु है व्यवहारनय करता है। शुभभावोंके प्रभावमें अथवा उस इसमें किसीको विवाद नहीं ( धर्मः सुखस्य हेतुः ), चाहे मार्गके कट जाने पर कोई शुद्धत्वको प्राप्त ही नहीं होता। वह मोक्षमार्गके रूपमें हो या संपारमार्गके रूपमें और इस शुभभावरूप मार्गका उत्थापन सचमुचमें जैनशासनका लिये मोक्षमार्गका आशय है मोक्षसुखकी प्राप्तिका उपाय उत्थापन है-भले ही वह कैसी भी भूल, ग़लती, अजान
और संसारमार्गका अर्थ है संसारसुखकी प्राप्तिका उपाय। कारी या नासमझीका परिणाम क्यों न हो, इस बातको जो पारमार्थिक धर्म मोक्षमार्गके रूपमें स्थित है वह साक्षात् मैं अपने उस लेखमें पहले प्रकट कर चुका हूँ। यहाँऔर परम्पराके मेदसे दो भागोंमें विभाजित है, साक्षात्में पर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि अणुव्रत, गुणउन परम विशुद्ध भावोंका प्रहण है जो यथाख्यातचारित्रके व्रत, शिक्षावत, सल्लेग्वना अथवा एकादश प्रतिमादिक रूपमें रूपमें स्थित होते हैं, और परम्परामें सम्यकदृष्टिके वे मय जो श्रावकाचार समीचीनधर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) आदिमें शुभ तथा शुद्ध भाव लिये जाते हैं जो मामायिक, छेदोपस्था- वर्णित है और पंचमहाव्रत, चमिनि, त्रिगुप्त, पंचेन्द्रियरांध, पनादि दूसरे मम्यक्चारित्रोंके रूपमें स्थित होते हैं और पंचाचार, षडावश्यक, दशलक्षण, परीषहजय अथवा अट्ठाईस जिनमें सद्दान-पूजा-भक्रि तथा बनादिके अथवा माग- मूलगुणों आदिके रूपमें जो मुनियोंका पाच.र मूलाचार, चारित्रके शुभ-शुद्ध भाव शामिल हैं। जो धर्म परम्पग रूपमें चारित्तपाहुड और भगवती पाराधना आदिमें वर्णित है, मोक्षसुखका मार्ग है वह अपनी मध्यकी स्थितिमें अक्पर वह सब प्रायः व्यवहारमोक्षमार्ग है और उस धर्मेश्वर ऊँचेसे ऊँचे दर्जेके मंपारसुग्वका भी हेतु बनता है। इसीसे श्री वीरसेनाचार्यन जयधवलामें लिखा है कि 'व्यवहारस्वामी समन्तभदने अपने समीचीन-धर्मशास्त्रमें ऐसे समी- नय 'बहुजीवानुग्रहकारी' है और वही प्राश्य किये चीन धर्मके दो फलोंका निर्देश किया है-एक नि:श्रेयम- जानेके योग्य है, ऐमा मनमें अवधारण करके ही गोतम सुखरूप और दूसरा अभ्युदयसुख-स्वरूप (१३०)। निः- गणधरने महाकम्मपयडीपाहुडकी आदिमें मगलाचरण श्रेयस सुखको सर्व प्रकारके दुःखोंसे रहित, मदा स्थिर रहने- किया है :वाले शुद्ध सुखके रूपमें उल्लेखित किया है, और अभ्युदय- "जो बहुजीवाणुग्गाहकारी बवहारणो सो चेव समस्सिसुखको पूजा, धन तथा प्राज्ञाके ऐश्वर्य (स्वामित्व) से दम्बो त्ति मणावधारिय गोदमथेरेण मंगलं तत्थ कदं ॥",