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________________ - - २७२ ] अनेकान्त [ वर्ष १३ है? यदि नहीं तो उसके भवभ्रमणमें पापके ही समान प्राय हो तो कृपया शास्त्रीय प्रमाण द्वारा इसे और स्पष्ट पुण्य भी कारण है या नहीं? यदि पुण्यभाव भी बन्धभाव का देनेको कृपा करें। होनेसे भवभ्रमणमें कारण है तो उसमें भटके रहनेसे हानि समाधान-गुद्धस्वकी प्राप्तिका जय रखते हुए जब हुई या नाम? किसीको परिस्थितियोंके वश शुभमें अटकना पड़ता है तो समाधान-शुद्धत्वका लषय रखते हुए म्य-क्षेत्र-काल- उसके लिये शुद्धत्वके पुरुषार्थकी पावश्यकता कैसे नहीं भावादिकी परिस्थितियोंके अनुसार शुभमें अटके रहनेसे रहती ? आवश्यकता तो उपको नहीं रहती जो शुद्धत्वका सम्यग्दृष्टिको सचमुच उरनेकी कोई बात नहीं है-वह कोई लक्ष्य ही नहीं रखता और एकमात्र शुभभावोंको ही यथेष्ट साधन-सामग्रीकी प्राप्ति पर एक दिन अवश्य मुनिको सर्वथा उपादय समझ बैठा है, ऐसा जीव मिथ्यादृष्टि होता प्राप्त होगा। असंख्य संसारी जीवोंको अब तक है। सम्यग्दृष्टि जीवकी स्थिति दूसरी है. उसका लक्ष्य राख ऐसा करके ही मुकि मिली है। अनादिकालसे जिनका होते हुए परिस्थितियोंके वश कुछ समय शुभमें भटके रहनेसे कोई परिभ्रमण हो रहा था वेही सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर शुद्धत्वका का विशेष हानि नहीं होती । यदि वह शुभका आश्रय न ले तो लषय रखत हुए शुभभावोंका प्राश्रय लेकर-उनमें उसे अशुभराग द्वेषादिके वश पढ़ना पड़े और अधिक हानिकुछ समय तक अटक रह कर-भवभ्रमणसे छटे हैं। और का शिकार बनना पड़े। शुभका आश्रय लिये बिना कोई इसलिये यह कहना कि संपारी जीवको अभी तक मुक्ति क्यों शुद्धत्वको प्राप्त भी नहीं होता, यह बात पहले भी प्रकट की नहीं मिली वह कोरा भ्रम है। संसारी जीवोंमसे जिनको जा चुकी है । अतः मेरे लिखनेका जो तात्पर्य निकाला गया है अभी तक मुक्निकी प्राप्ति नहीं हुई उनके विषयमें समझना वह लेख तथा उसकी दृष्टिको न समझनेका ही परिणाम है। चाहिये कि उन्हें सम्यग्दर्शनादिकी प्राप्तिके साथ दूसरी लेखमें "शुद्धत्व यदि माध्य है तो शुभभाव उसकी प्राप्ति योग्य साधन-सामग्रीकी अभी तक उपलब्धि नहीं हुई है। का मार्ग है-साधन है। साधनके विना साध्यकी प्राप्ति सम्यग्दर्शनसे विहीन कोरे शुभभाव मुनिके साधन नहीं और नहीं होती, फिर साधनकी अवहेलना कैसी?" इत्यादि न कोरा पुण्यबन्ध हो मुनिका कारण होता है, वह नो वाक्योंके द्वारा लेखकी दृष्टिको भले प्रकार समझा जा सकता कषायोंकी मन्दतादिमें मिथ्याष्टिक भी हुआ करता है। वह है। जिसका लक्ष्य शुद्धत्व है ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवको लक्ष्य पुण्यभाव अपने लेख में विवक्षित नहीं रहा है। ऐसी स्थितिमें करके ही यह कहा गया है कि उसे शुभमें अटकनेसे डरनेकी शंकाके शेष अशके लिये कोई स्थान नहीं रहता। सम्यग्दृष्टि भी ऐसी कोई बात नहीं है, ऐसा जीव ही यदि शुभमें अटका और मिथ्याष्टिके पुण्यभाव तथा उनमें अटके रहनेकी दृष्टिमें रहेगा तो शुद्धत्वके निकट रहेगा। बहुत बड़ा अन्तर है-एक उसे मर्वथा उपादेय मानता है ७ शंका-यदि पुण्य और धर्म एक ही वस्तु हैं तो तो दूसरा उसे कथंचिन उपादेय मानता हुआ हेय समझता शास्त्रकारोंने पुण्यको भिन्न संज्ञा क्यों दी? है, और इसलिए दोनों की मान्यतानुसार उनके हानि-लाभमं समधान-यह शंका कुछ विचित्रमी जान पड़ती है ! मैंने अन्तर पड जाता है। पुण्यबन्ध सर्वथा हा हानिकारक तथा ऐसा कहीं लिखा नहीं कि 'पुण्य और धर्म एक ही वस्तु है।' भवभ्रमणका कारण हो, ऐसी कोई बात भी नहीं है। तीर्थकर जो कुछ लिखा है उसका रूप यह है कि "धर्म दो प्रकारका प्रकृति और पर्वार्थसिद्धि में गमन कराने वाले पुण्यकर्मका बंध होता है-एक वह जो शुभभावोंके द्वारा पुण्यका प्रम धक जल्दी ही मुक्रिको निकट लानेव ला होता है। है, और दूसरा वह जो शुद्धभावके द्वारा किसी भी प्रकारके ६शंका-यदि शुभमें अटके रहने में कोई हानि नहीं (बन्धकारक) कर्मावका कारण नहीं होता। इससे यह है तो फिर शुद्धस्वके लिये पुरुषार्थ करनेकी श्रावश्यकता ही माफ फलित होता है कि धर्मका विषय बड़ा है-वह व्यापक क्या रह जाती है ? क्योंकि आपके लेखानुसार जब इनसे है पुण्यका विषय उसके अन्तर्गत पा जाता है। इसलिये वह हानि नहीं तो जीव इन्हें छोड़नेका उद्यम ही क्यों करे। व्याप्य । व्याप्य है। इस दृष्टिसे दोनोंको एक ही नहीं कहा जा क्या प्रापके लिखनेका यह तात्पर्य नहीं हुआ कि इसमें अटके सकता, धमका एक प्रकार हानस पुरुषका भी धर्म कहा रहनेसे कभी न कभी तो संसार परिभ्रमण रुक जावेगा। जाता ना जाता है । इसके सिवाय, एक ही वस्तुकी दृष्टिविशेषसे शुभाकया करते २ मुक्ति मिल जावेगी, ऐसा आपका अभि- देखो अनेकान्त वर्ष १३ किरण १, पृ०,५।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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