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________________ भगवान् ऋषमदेवके अमर स्मारक (पं० हीरालाल जैन, सिद्धान्तशास्त्री ) जैन मान्यताके अनसार भर ऋषभदेव इस युगके ऋषभदेवके भरत । भरत अपने सौ भाइयों में सबसे आदि तीर्थकर थे। उन्होंने ही यहाँ पर सर्वप्रथम ज्येष्ठ थे। ऋषभदेवने हिमालयके दक्षिणका क्षेत्र लोगोंको जीवन-निर्वाहका मार्ग बतलाया. उन्होंने ही भरत के लिये दिया और इस कारण उस महात्माके स्वयं दीक्षित होकर साध-मार्गका आदर्श उपस्थित नामस इस क्षेत्रका नाम 'भारतवर्ष' पड़ा। किया और केवलज्ञान प्राप्त कर उन्होंने ही सर्वप्रथम यही वात विष्णुपुराण में भी कही गई है:मंसारको धर्मका उपदेश दिया । भ० ऋषभदेवने नामेः पुत्रश्च ऋषमः ऋषमाद् भरतोऽभवत् । लिपिविद्या और अंकविद्याका लिखना-पढ़ना सिम्ब- तस्य नाम्ना विदं वर्ष मारतं चेति कीयते ॥५७॥ लाया, ग्राम-नगरादिको रचना की और लोगोंको विभिन्न -(विष्णुपुराण, द्वितीयांश अ. १) प्रकारकी शिक्षा देकर वाँकी स्थापना की। इस प्रकार उपयुक्त उल्लेखोंसे जहां भरतके नामसे आज भारत में जो प्राचीन संस्कृति पाई जाती है, इस क्षेत्रका नाम भारतवर्ष' सिद्ध होता है, वहां उसके मूलकी छानबीन करने पर पता चलता है कि भरतके पिता होने के कारण भ. ऋषभदेवकी ऐतिहाउम पर भ. ऋपमदेवके द्वारा प्रचलित व्यवस्थाओं सिकता और प्राचीनता भी स्वतः सिद्ध हो जाती है। की कितनी ही अमिट छाप आज भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है और अक्षय तृतीया, अक्षयवट तथा इक्ष्वाकुवंशशिवरात्रि जैसे पर्व तो आज भी भगवानके अन्तिम ___ 'जैन मान्यताके अनुसार भ० ऋषभदेवके जन्मसे तीनों कल्याणोंके यमर स्मारकके रूपमें उनके ऐतिहा पूर्व यहां पर भोगभूमि थी और यहांके निवासी कल्पसिक महापुरुष होनेका स्वयं उद्घोष कर रहे हैं । इस वृक्षोंसे प्रदत्त भोग-उपभोगकी सामग्रीसे अपना जीवन निर्वाह करते थे। जब ऋषभदेवका जन्म हुआ, तब लेखमें संक्षेपरूपसे भ. ऋषभदेवके इन्हीं अमर वह व्यवस्था समाप्त हो रही थी और कर्मभूमिकी स्माकों पर प्रकाश डाला जायगा। रचना प्रारम्भ हो रही थी। भोगभूमिक समाप्त होते भारतवर्ष ही कल्पवृक्ष लुप्त हो गये और यहांक निवासी भूखभ० ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र आदि चक्रवती सम्राद प्याससे पीड़ित हो उठे। वे 'बाहि-त्राहि' करते हुए भरत सर्वप्रथम इस पट् खंड भूभागक स्वामी बने और ऋषभदेवके पास पहचे । लोगोंने अपनी करुण तभोसे इसका नाम 'भरतक्षेत्र' या 'भारतवर्ष प्रसिद्ध कहानी उनके सामने रखी। भगवान उनके कष्ट सुनहा। इस कथनकी पुष्टि जैन-शास्त्रोंसे तो होती ही है, कर द्रवित हो उठे और उन्होंने सर्वप्रथम अनेक किन्त हिन्द ओंके अनेक पुराणों में भी इसका स्पष्ट दिनोंसे भूखी-प्यासी प्रजाको अपने आप उगे हुए उन्लेख है । उनमेंसे २-१ प्रमाण यहाँ दिये जाते हैं:- इतुओं (गन्नों) के रस-पान-द्वारा अपनी भूख-प्यास अध जः। शान्त करनेका उपाय बतलाया और इसी कारण लोग ऋषमाद् भग्तो जज्ञे वीरः पुत्रशताद्वरः॥३६॥ आपको 'इक्ष्वाकु' कहने लगे। 'इतु इति शब्दं अकनीनि, अथवा इतुमाकरोतीति हिमा दक्षिणं वर्षे भरताय पिता ददा। इक्ष्वाकुः । अर्थात् भूखी-प्यासी प्रजाको 'इक्षु' ऐसा तस्मात्त भारत वर्ष तस्य नाम्ना महात्मनः ॥४१॥ शब्द कहने के कारण भगवान 'इक्ष्वाकु' कहलाये । (मार्कण्डेयपुराण अ०५०) मोमवंश, सूर्यवंश आदि जितने भी वंश हैं, उनमें अर्थात-नाभिराजके पुत्र ऋषभदेव हुए और 'इक्ष्वाकु वंश ही आद्य माना जाता है।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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