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________________ किसकी जीत हिंसा और हिंसा इन्द] (जेमिचन्द्र जैन 'विनम्र') एक दिन धीमन बीच, जगा निज बढका प्रवक्ष प्रमाद। दिखाऊँ प्रतिद्विन्दनको आज, असीमित विक्रमका प्रासाद ॥१॥ सोच मह, भट्टहास कर बोर, चली यह शहरों पर प्रालीन । मिली वासंतिक पवन सुशीघ्र, दिखो जो मधुर धुनोंमें लीन ॥२ मृदुलता, मंजुलता श्रौ सौम्य, किये थे मुख-सरोजको भव्य । माह हो आत्म-संतोष, उसे कम डिगा सके मद हय? ॥३ जिसे प्रगटेकर अपना चिर अभिमान, मदांधा बोली कर तिरस्कार । 'नचाई क्या तू बस मुझ तुल्य, रही क्यों नमनशीलता धार ॥४ मौनही रही बसंती वायु, न मुखसे बोली कोई बात । देख पुर, फिरसे कहा सक्रोध, 'सुनो तुम मेरा मल पुन ॥ फैल जाता भयका साम्राज्य, उठा करती हूँ मैं जिस काल । पक्षक रचक कर संत चतुर्दिक में कह देते हाल ॥६॥ गृहत जलयानकि मस्तूल, गिरा देती तिनकों सा तोड़ । महा मेरे पौरुष समकप, लगा सकते क्या पलभर होड़? ॥७ सिंधुकी भी अगाध अक्षराशि, पूजती मेरे चरण कठोर। लगाते ही डोकर बस एक चीखतीं गिरती करतीं शोर ॥ 2 सांससे करती बद्र विनष्ट, असीमित मेरी गौरव-शान । रहीहूँ 'विश्व-विजयनि' मान्य, कौन है सुमसा शौर्य-प्रधान ॥१३ कि गूँजे तेरे भी जय-गीत, नहीं क्या अब भी इच्छावान १ धार ले मुझसा हिंसक रूप, तान दे निज आतङ्क वितान" ॥१४ जहाजों को कर देती ध्वस्त, एकही करके तीच्या प्रहार और फिर से टुकड़े जय-चिन्ह बना बिखरा देती हर बार ||१० आगमन मेरा बस जी छोड़ में छिपते मानव शूर !! बचा लेने को अपने प्राय, भागते पशुपक्षी भय-पूर ॥33॥ मकानोंके छप्पर भी, सुनो, उड़ा ले जाती मीलों दूर । राम महलोंके भी मुकुट, गिरा देवी भूपर बन॥१२ न मुखसे बोली कोई बात हुई चुप चलनेको तैयार । 'साथ चलने का कर संकेत, बसंती वायु चली सुकुमार ॥११॥ देखकर उसका शांत स्वरूप, गये उपवन मस्ती में दूष झूमने लगे खेत जी खोल, भला क्या इससे सकने अब १ ॥ १६ ॥ , प्रफुलित हो जहरें अविराम उछलने लगीं गगनी ओर। नृत्य करती थीं वे मुद मग्न, हर्षसे थी निस्सीम विभोर ॥१॥ काननों में बहारका साज, पक्षकमें दिखने लगा विशाल । महकने लगे पुष्प मद मस्त, बिछ गया मौरमका मधु जाला ॥१८ भ्रमर-दल कलि-प्रेयसिगण संग, किलोलें करने लगे अबाध । छेड़कर मधुगीतों की तान, मिटाती कोयन निज उर साथ ॥१३ किया शिखियोंने मनहर नृत्य, हुआ अधरों पर शोभित हाल । जहां छाया था भयका राज्य, यहां पर छाया दर्प-विलास ॥२० खगोंने कलरव ध्वनि कर शीघ्र किया था मधुसमीर जय गान । उठा ऊँचे देती जब पटक, प्रलय सा करतीं हाहाकार । अबाधित मेरा तांडव नृत्य, सदा छाई है विजय बहार ॥१॥ प्रकृति भी हो सुषुमा सम्पन्न, भेंटती थी श्राशीश महान ॥ २१ इन्दु करता उसका अभिषेक, पुष्पसे पूजन करते कुज सूर्य सी कब बरसाठी साप ? अहो! थी वह शीतलता- ॥ २२ 'तुम्हारा अभिनंदन हे देवि हमारे करते व्याकुख प्राथ दानवी अांधी के प्राघात, तुम्हींसे पस पाने हैं आया ॥ २३ हुई धांधी लज्जानत घोर, हुआ खण्डित उसका अभिमान । प्रेमसे गल जाते पाषाण, शाहिसे तनता कुयश वितान ||२४ 'हमेशा शासकले बलवान, गिना जाता माता जग बीच एक है निर्मल सरिता-धार, दूसरा उत्पीडककी ॥२२
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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