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________________ ४४] अनेकान्त .. .._ [वर्षे १३ गौतम गणधर-अथित माने जाने वाले दिगम्बर प्रति. स्थित साधु तथा पंडितमरण जहाँ पर हुआ है, ऐसे क्षेत्र: क्रमणसूत्रमें निमोहियाओंकी बन्दना करते हुए- ये सब निषीधिकापदक वाच्य हैं। 'जाओ अण्णाम्रो कामोवि णिमीहियामो जीवलोयम्मि' निषाधिकापदके इतने अर्थ करनेके अनन्तर प्राचार्य यह पाठ आया है-अर्थात् इस जीव-लोकमें जितनी भी प्रभाचन्द्र लिम्वते हैं :निषीधिकाएं हैं, उन्हें नमस्कार हो। अन्ये तु 'णिसीधियाए इत्यस्यार्थमित्त्थं व्याख्यानयन्तिउक्त प्रतिक्रमण सूत्रके संस्कृत टीकाकार भा० प्रभाचन्द्रने णित्ति णियमेहिं जत्तो सित्तिय सिद्धि तहा अहिग्गामी। जो कि प्रमेयकमलमानण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदि अनेक धित्तिय धिदिबद्धको एत्तिय जि णसासणे मत्तो।। दार्शनिक ग्रन्थोंके रचयिता और समाधिशतक, रत्नकरण्डक आदि अनेक ग्रन्थोंक टीकाकार हैं-निषीधिकाक अनेक अर्थात् कुछ लोग 'निसीधिया' पदकी निरुक्ति करक उसका इस प्रकार अर्थ करते हैं:-नि-जो वतादिक नियमसे अर्थोका उल्लेख करते हुए अपने कथनकी पुष्टि में कुछ प्राचीन युक्त हो, मि-जो सिद्धिको प्राप्त हो या सिन्डूि पानेको गाथाएँ उद्धृत की हैं जो इस प्रकार हैं: अभिमुख हो, धि-जो एति अर्थात् धैर्यसे बद्ध कम हो, जिण सिद्धवि-णिलया किदगाकिदगा य रिद्धिजुदसाहू। और या अर्थात् जिनशासनको धारण करने वाला हो, रण खजदा मुणिपबरा पाणुप्पत्तीय पाणिजुदखत्त ।। उसका भकहा। इन गुणोंस या पुरुष 'निमीधिया' पदका सिद्धाय सिद्धभूमी सिद्धाण समासिया यही देसा। वाच्य है। सम्मत्तादिच उक्कं उपरणं जेसु तेहिं सिदखे ॥२॥ साधुओंके देवमिक-रात्रिकप्रतिक्रमणमें 'निषिद्धिकादंडक' चत्तं तेहि य देहं तावदं जेसु ता णि सीहीओ। नामसं एक पाठ है। उसमें णिमोहिया या निपिन्डिका का जेस विसद्धा जोगा जोगधरा जेसु संठिया सम्मं ॥३॥ वंदनाकी गई है । 'निसीहिया' किमका नाम है और उसका जोगपरिमुक्कदेहा पंडिनमरावदा णिसीहीओ। मूलमें क्या रूप रहा है इस पर उपसे बहुत कुछ प्रकाश पडता तिविहे पंडितमरणे चिट्ठति महामुणी समाहीए ॥४॥ है। पाठकोंकी जानकारीक लिए उसका कुछ आवश्यक अंश एदात्री अण्णाओ णिसाहियाओं सया वंद। यहाँ दिया जाता है: अर्थान-कृत्रिम और प्रकृत्रिम जिनविम्ब. सिद्धप्रतिबिम्ब, णमो जिणाणं ३ णमो णिमीहियाए ३। णमोजिनालय, मिखालय, ऋद्धिसम्पन्नमाधु, तत्सवित क्षेत्र त्थु दे अरहंत, सिद्ध बुद्ध, णीरय, णिम्मल,.. ... अवधि, मनः पर्यय और कवलज्ञानक धारक मुनिप्रबर, इन गुणरयण, सीलसायर, अणंत, अप्पमेय,महदिमहावीरज्ञानीक उत्पन्न होनेक प्रदेश, उक्र ज्ञानियांस प्राश्रित क्षत्र, वड्ढमाण, बुद्धिरिसिणो चदि णमोत्थु दे णमात्थु दे सिद्ध, भगवान निर्वाणक्षत्र, सिद्धास समाश्रित सिद्धालय, गगमोन्थु दे। (क्रियाकलाप पृष्ठ ५५) सम्यक्वादि चार आराधनाओंसे युक्र तपस्वी, उक आराधकांस xxx हिणिसीहियाओं अट्ठावयपव्वए सम्मेदे प्राधित क्षेत्र, पाराधक या क्षपकक द्वारा छोड़े गये शरीरक उज्जंत चंपाए पावाए मज्झिमाए हथिवालियसहाए आश्रयवर्ती प्रदश, यागस्थित तपस्वी, तदाधित क्षेत्र, योगि- जाओ अण्णाओ काओ विणिसीहियाओजीवलोम्मि, यों द्वारा उन्मुक्र शरीरक आश्रित प्रदेश और भक प्रत्याख्यान इमिपब्भारतलग्गयाणं सिद्धाणं बुद्धाणं कम्मचकमुकाण इंगिनी और प्रायोपगमन इन तीन प्रकारके पंडितमरणमें णीरयाणं णिम्मलाणं गुरु-आइरिय-उक्जमायारणं ४भानाम भोजन का है उस क्रम-क्रमसं त्याग करक पर्वात-थर-कुलयराणं चाउबएणो य समयमंघो य और अन्तम उपवास करके जो शरीरका त्याग किया जाता मरण करने वाला साधु दसरेके द्वारा की जाने वाली वयानह उसे भा प्रन्यारव्यान मरण कहते हैं । भक्रप्रत्याख्यान स्यको स्वीकार नहीं करता, केवल अपनी सेवा-रहल अपने करने वाला साधु अपने शरीरकी सेवा-टहल या वैयावृत्त्य हाथसे करता है। परन्तु प्रायोपगमन मरण करने वाला इसे स्वयं भी अपने हाथसे करता है और यदि दूसरा वैयावृत्त्य ग्रहण करनेके अनन्तर न स्वयं अपनी वैयावृत्त्य करता है कर तो उसे भी स्वीकार कर लेता है। इंगिनीमरणमें शेष और न दूसरेसे कराता है, किन्तु प्रतिमाके समान मरण विधि-विधान तो भाप्रत्याख्यानके समान हो है पर इंगिनो- होने तक संस्तर पर तदवस्थ रहता है।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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