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किरण
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क्या व्यवहार धर्म निश्चयका साधक है ?
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"" का अर्थ मनकी गैर मौजूदगी ही करना चाहिये। है क्योंकि अमनस्क शब्दका जब हम "ईषित् मन वाला"
दूसरी बात यह है कि अनिद्रिय शब्दके विशेषणार्थक अर्थ करेंगे तो स्वभावतः समनस्कशब्दका हमें "पूर्ण मनसंज्ञा होने की वजहसे उसका वाच्यार्थ मन होता है इसलिये वाला" अर्थ करना होगा लेकिन समनस्क शब्दका "पूर्ण जिस प्रकार इन्द्रिय शब्दके माथ अनिन्द्रिय शब्दके प्रयोगमें मन वाला" अर्थ करना क्लिष्ट कल्पना ही कही जा सामंजस्य पाया जाता है उस प्रकार अमनस्क शब्दका सकती है। "ईषित् मम वाला" अर्थ करके समनस्क शब्दके साथ
बोना, ता. २६।२।५५ उसका (अमनस्क शब्दका) प्रयोग करनेमें सामजस्य नहीं
क्या व्यवहार-धर्म निश्चयका साधक है ?
( जिनेन्द्रकुमार जैन ) व्यवहार तथा निश्चय-धर्म नाम निर्देश :- प्र० मा०५, पंचास्तिकाय६, तथा मोक्षमार्गप्रकाश श्रादि सर्व दया, दान, सद्देव गुरु शास्त्रकी पूजा, भकि, शील,
प्रन्थों में इन क्रियाओंको जो-जो उपाधिये प्रदान की गई हैं ययम, तप, अणुव्रत, महावत, समिति, गति प्रादि सर्व वह विद्वद्जनोंकी दृष्टिस श्रोझल नहीं है। यदि कहा जाय बाह्य क्रियायें, व्यवहार धर्म है, निश्चयके साधन हैं, हेतु
कि यह सब मज्ञायें नो अज्ञानीकी क्रियाओंके लिए हैं तो है, सहायक है, मित्रवत् है इत्यादि अभिप्राय सचक वाक्योंकी ठीक है। परन्तु यह तो भूल नहीं जाना चाहिये कि ज्ञानोकी जैनागममें कमी नहीं है। यह बात कौन नहीं जानता। क्रियाय नो निम्न प्रकार हेयोपादेय बुद्धि सहित ही होती इसलिये मप्रमाण इनको सिद्ध करनेका प्रयत्न व्यर्थ ही है। हैं। निरपेक्ष नहीं। अतः उन क्रियाओंका अर्थ ग्रहण जिसे दूसरी ओर इस प्रकारके प्रमाणोंकी भी कमी नहीं कि जिनमें उस रूपमें हुअा हो उसीकी उन क्रियाओं को व्यवहार धर्म इन बाह्य क्रियाओंको निरर्थक, व्यवहाराभाम, चारित्रामाम कह सकते हैं, मब हो को क्रियाश्रांको नहीं। आदि मज्ञायांस अलकृत करके म्यवं श्राश्रय रूप स्वात्मानु- क्या पूर्वापर विराध है ? भूतिमें ही दृढ़ रहनेका उपदेश है। जैसे मूलाचार गा० १०. एक ही प्राचार्य प्रणीत एक ही ग्रन्थमें भिन्न-भिन्न में सम्यक्त्व रहित उपरोक्र क्रियाओंको निरर्थक कहा है।। स्थलोंपर इस प्रकारकी दो विरोधी बातोंसे क्या पूर्वापर म. सा. गा० ४११ की टीकामें इन क्रियाओंका छोड़ देने विरोधका ग्रहण होना स्वप्नमें भी सम्भव है? ऐसा कदापि नकका भी भगवान अमृतचन्द्राचार्यका आदेश है। । हो ही नहीं सकता कि सर्वज्ञ भाषित जिनागममें इस प्रकारका अात्मानुशासन गा. 14 में इन्हें भार बताया है३ । लाटी- विगंध आये । शब्दोंम विगंध देखते हुए भी इन दोनों ही संहितामें विना स्वा मानुभृति श्रुत मात्र तत्वार्थ श्रद्धान तथा मन्तव्यों में किञ्चित भी भेद नहीं है। कंवल कथन शैली में व्रतादि क्रियाओंको मिथ्यात्वकी कोटिमें गिनाया है। । अन्तर है। एक चरणानुयोगकी मुग्व्यनासे कहा गया है और । ज्ञानं करणविहान, लिगग्रहणंच संयमविहीनं । दृमरा द्रव्यानुयोगकी मुग्व्यतासे । परन्तु इनमें परस्पर क्या
दर्शनहिनं च तपः यः करोति निरर्थकं करोति।मू.गा... सम्बन्ध है यह केवल ज्ञानी जन ही जान सकते हैं अज्ञानी २ ततः समस्तमपि दलिग त्यक्त्या दर्शनज्ञानचाारने चैत्र
तत्वानुगतप्पाच्छुद्धा नानुपलब्धितः ॥६६॥ माक्षम र्गत्वात् आत्मा योकव्य इति सूत्रानुमतिः ।
भवाशनिको नूनं सम्यक्त्वेन युतो नरः । प्रान्मख्याति टीका गा० ४१३ दर्शनप्रनिमाभामः क्रियावानऽपि तद्विना ॥१२॥ ३ शमबांधवृत्तापमा पाषाणस्यव गौरवं पुसः ।
लाटोसंहिता १०३ पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्व संयुक्त प्रात्मानुशासन १५ ५ अथ आत्मज्ञानशून्यं प्रागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोग४ स्वानुभूति विनाभापाः नार्थादच्छुद्धादयो गुणाः । पद्यमपि अकिचित्करमेव । प्रसा. टोका गा०२३६ बिना स्वानुभूति तु या श्रु मात्रतः ।
६ ततः खल्वहंदादिगताप रागं चन्दननगसङ्गतमाग्निमिव