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५४२] अनेकान्त
[वर्ष १३ हैं। यदि नहीं तो ऐसी भूलके लिए खेद प्रकट शीघ्र किया महान् प्राचार्योको "लौकिकजन" और "अन्यमती" बतला जाना चाहिए।"
कर भारी अपराध किया है, जिसका उन्हें स्वयं प्रायश्चित्त
करना चाहिए, उसका श्रीबोहराजीके उक्त प्रमाणसे कोई "हाँ यहाँ पर मैं इतना जरूर कहूंगा कि श्रीकानजी परिमार्जन नहीं होता-वह ज्योंका त्यों खड़ा रहता है। और स्वामी पर जो यह आरोप लगाया गया था कि उन्होंने अपने इसलिए उनका यह प्रमाण कोई प्रमाण नहीं, किन्तु प्रमाणाउक वाक्य-द्वारा जाने-अनजाने श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, स्वामी भासकी कोटिमें स्थित है, जिससे कुछ भोले भाई ही उगाये समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंकदेव और विद्यानन्दादि-जैसे जा सकते हैं।
(क्रमशः)
श्री पं० मुख्तार सा० से नम्र निवेदन
(श्री हीराचन्द बोहरा बी० ए० विशारद अजमेर) अनेकान्त वर्ष १३ किरण १ (जुलाई ५४) में 'समय- -जैनधर्म या जिनशामनसे शुभभावोंको अलग नहीं सार की १५वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी' शीर्षक लेख किया जा सकता और न मुनियों तथा श्रावकोंके सरागचारिजो समाजके प्रसिद्ध साहित्य संवी एवं वयोवृद्ध विद्वान् श्री को ही उससे पृथक किया जा सकता है। ये सब उसके प० जुगलकिशोर जी सा. मुख्तार द्वारा लिखा गया है, उसके अंग हैं अंगोंसे हीन अंगी अधूरा या लंडुरा कहलाता है।' सम्बन्ध में मैं उनकी सेवामें उनके नम्र विचारार्थ अपने "शुभमें अटकनेसे डरनेकी भी कोई बात नहीं है। आदि द्वारा हृदयोद्गार उपस्थित करनेका साहस कर रहा हूँ। इसमें कोई यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि शुभभाव जैनधर्म है। सन्देह नहीं कि श्रद्धय श्री मुख्तार सा० ने जैन साहित्यकी उपरोक लेख श्रीकानजी म्वामीके निम्न शब्दोंको लेकर अभूतपूर्व सेवा की है और इसीलिये उनके प्रति मेरे हृदयमें लिखा गया है-"कोई कोई लौकिक जन तथा अन्यमती भी पूर्ण आदर भाव है, लेकिन प्रस्तुत लेखमें जिस तर्कको कहते हैं कि पूजादिक तथा वन क्रिया सहित हो वह जैनधर्म लेकर श्री कानजी स्वामीके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा गया है परन्तु ऐसा नहीं है । देखो, जो जोव पूजादिक शुभरागको है वह हृदयको खटक गया है। इसीलिए यहाँ मैं अपने धर्म मानते हैं उन्हें 'लौकिक जन' तथा अन्यमती' कहा है।' अल्प शास्त्रीय ज्ञानका आधार बनाते हुए अपनी भावनाओं- इसी प्रकरणको लेकर श्रीकानजी स्वामीके शब्दोंको को व्यक्त कर रहा हूं। श्राशा है, विद्वान् बन्धु एवं पाठक असंगत वस्तु स्थितिक विरुद्ध, अविचारित, वेतुकी वचनागण इस पर गंभीरता पूर्वक विचार करने को कृपा करेंगे और वलो बतलाते हुए उनके कृत्यको पृष्टतापूर्ण तथा दुस्साहस यदि मेरे अभिप्रायमें भागमष्टिसे विरोध पाता हो तो मुझे पर्ण ठहराया गया है तथा उनके द्वारा दिगम्बर जैनमन्दिरों सम्यक् मार्ग प्रदर्शित करनेकी कृपा करेंगे। ताकि मैं भी मूर्तियों के निर्माण, पूजा प्रतिष्ठादि विधानों में योग देनेके अपनो मान्यताकी भूल (यदि वास्तवमें भूल हो तो ) ठीक कृत्य में श्री मुख्तार सा.को मत विशेषके प्रचारकी भावना कर सकू।
अथवा तमाशा दिखलानेको भावनाकी गंध पाई है, इसीलिए श्री मुख्तार सा० ने 'क्या शुभभाव धर्म नहीं ?' शीर्षक "उपसंहार और चेतावनी" शीर्षकमें अपनी उपरोक भावनाके अंतर्गत यह लिखा है कि "धर्म दो प्रकारका होता है, एक ओंको और भी स्पष्ट कर डाला है। समाचारपत्रोंमें इस वह जो शुभभावोंके द्वारा पुण्यका प्रसाधक है, और दूसरा प्रकारकी आशंकाओंके प्रकट किए जानेका मनोवैज्ञानिक रूपसे वह जो शुद्धभावोंके द्वारा अच्छे या बुरे किसी भी प्रकारके कितना विपरीत प्रभाव पड़ सकता है यदि हम पर गंभीरकर्मास्रवका कारण नहीं होता ।" आगे यह भी लिखा है कि तापूर्वक थोड़ा बहुत भी विचार किये जानेका कष्ट किया "पूजा तथा दानादिक धर्मके अंग है, वे मात्र अभ्युदय अथवा जाता तो सम्भवतः मुख्तार सा. सहश उच्च कोटिके विद्वान्पुण्यफलको फलनेकी वजहसे धर्मकी कोटिसे नहीं निकल को अपने पत्रमें ऐसी बातें लिखनेकी आवश्यकता नहीं होती, जाते। 'शुभभावोंका जैनधर्ममें निषेध नहीं किया गया है। इनकी परिमार्जित एवं अनुभवशील लेखनीसे इस प्रकार के