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________________ किरण ५] श्री मुख्तार सा.से नम्र निवेदन [ १४३ - - . लेखको पढ़ कर कमसे कम मेरे हृदयको तो काफी चोट पहुंची ६-यदि शुभमें अटके रहनेमें कोई हानि नहीं है तो है क्योंकि इन बातोंका असर व्यापक एवं गम्भीर हो सकता फिर शुद्धत्वके लिए पुरुषार्थ करनेकी आवश्यकता ही है। काश निष्पक्ष, मध्यस्थ, शान्त हृदयसे तथा दूरदर्शिता- क्या रह जाती है ? क्योंकि आपके लेखानुसार अब की दृष्टिसे इस पहलू पर विचार करनेका प्रयत्न किया जाता इनसे हानि नहीं तो जीव इन्हें छोड़नेका उद्यम ही तो कितना सुन्दर रहता ! अस्तु क्यों करे ? क्या आपके लिखनेका यह तात्पर्य नहीं हुवा __उपरोक लेखको पढ़कर मेरे हृदयमें जो शंकाए उठ खड़ी कि इसमें अटके रहनेसे कभी न कभी तो संसार परिहुई है, जिज्ञासुकी दृष्टिसे उनका समाधान करनेका श्री. भ्रमण रुक जावेगा? शुभ क्रिया करते २ मुकि मिल मुख्तार साहबसे मेरा नम्र निवेदन है। आशा है श्री मुख्तार जायेगी, ऐमा श्रापका अभिप्राय हो तो कृपया शास्त्रीय साहब अपने इसो पत्रमें इनका उत्तर प्रकाशित करनेकी कृपा प्रमाण द्वारा इसे और स्पष्ट कर देनेकी कृपा करें। करेंगे। -यदि पुण्य और धर्म एक ही वस्तु हैं तो शास्त्रकारोंने १-दान, पूजा, भक्रि शील, संयम, महाव्रत, अणुव्रत पुण्यको भिन्न संज्ञा क्यों दी? . आदिके परिणामोंसे कर्मोंका प्रास्रव बंध होता है या ८-यदि पुण्य भी धर्म है तो सम्यक्दृष्टि श्रद्धामें पुण्यको संवर निर्जरा? दंडवत क्यों मानता है ? -मोक्षमार्ग-अध्याय . २-यदि इन शुभभावोंसे कर्मोंकी मंवर निर्जरा होती है तो -यदि शुभभाव जैनधर्म है तो अन्यमती जो दान, पूजा, शुद्धभाव (वीतराग भाव) क्या कार्यकारी रहे ? यदि भकि आदिको धर्म मानकर उमीका उपदेश देते हैं, कार्यकारी नहीं तो उनका महत्व शास्त्रों में कैसे वर्णित हैं क्या वे भी जैनधर्मके समान हैं ? उनमें और जैनहुवा ? धर्म में क्या अन्तर रहा? -जिन शुभभावोंसे कर्मोका पास्त्रव होकर बंध होता है १०-धर्म दो प्रकारका है-ऐसा जो आपने लिखा है तो क्या उन्हीं शुभभावोंसे मुक्ति भी हो सकती है ? क्या उसका तात्पर्य तो यह हुआ कि यदि कोई जीव दोनों में एक ही परिणाम जो बंधके भी कारण हैं, वे ही मुनिका से किसी एकका भी आचरण करे तो वह मुक्तिका पात्र कारण भी हो सकते हैं। यदि ये परिणाम बंधके ही हो जाना चाहिए क्योंकि धर्मका लक्षण प्राचार्य समंतकारण है तो इन्हें धर्म (जो मुक्रिका देने वाला है) कैसे भदम्बामीने यही किया है कि जा उत्तम अविनाशी माना जाय ? सुखको प्राप्त करावे, वही धर्म है तो फिर द्रव्यलिंगी ४-उत्कृष्ट व्यलिंगी मुनि शुभोपयोगरूप उच्चतम निर्दोप मुनि मुनिका पात्र क्यों नहीं हुआ ? उसे मिथात्व क्रियाओंका परिपालन करते हुए भी (यहां तककि गुण स्थान ही कैस रहा ? आपके लेखानुसार तो उसे अनंतवार मुनिवन धारण करके भी) मिथान्व गुणा- मुक्निकी प्राप्ति हो जानी चाहिए थी। स्थानमें ही क्यों पड़ा रह जाता है ? श्रापके लेखानुसार १-धर्म मोक्षमार्ग है या संसारमार्ग ? यदि शुभभाव भी तो वह शुद्धत्वक निकट (मुक्रिके निकट) होना चाहिये। मोक्षमार्ग है तो क्या मोनमार्ग दो हैं। फिर शास्त्रकारोंने उसे असंयमी सम्यक्दृष्टिसे भी हीन आशा है श्री मुख्तार साहब शास्त्रीय प्रमाण देकर क्यों माना है ? उपरोक्त शंकाओंका समाधान करनेकी कृपा करेंगे ताकि मेरे ५-यदि शुभभावोंमें अटके रहनेमें डरनेकी कोई बात नहीं हो ममान यदि अन्यकी भी ऐसी मान्यता हो तो गलत है तो संसारी जीवको अभीतक मुक्ति क्यों नहीं मिली? मिद्ध होने पर वह सुधारी जा सके। अनादिकालसे जीवका परिभ्रमण क्यों हो रहा है? अष्टपाहुडजीका उद्धरण (श्री कुंदकंदाचार्य रचित) क्या वह अनादिकालसे केवल पापभाव हा करता पाया मेरी अब तक की थोड़ी बहुत स्वाध्यायमें निम्न प्रकरण है? यदि नहीं तो उसके भव भ्रमणमें पापके ही समान मेरे देखनेमें आए हैं और इनमें तथा श्री मुख्तार साहबने पुण्य भी कारण है या नहीं? यदि पुण्यभाव भी जो बातें लिखी हैं उनमें स्पष्ट विरोध है। बंध भाव होनेसे भव-भ्रमणमें कारण है तो उसमें भटके भावपाहुड-गाथा ८३-40 जयचंदजी भाषा वचनिका रहनेमें हानि हुई या खाम ? पूयादिसु..... शाहिस.......................... अप्पयो धम्मो सका
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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