________________
वर्ष १३
श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन
[२१५
'चारित्तं खलुधम्मो' कहकर धर्मका लक्षण बतलाया है, भाव ही मूल है। भावविना निरा म्यलिंग चारोंगतियों में उसी प्रकार इसमें धर्मका मूल दर्शन कहा है 'दंसमलो भटकाता है। धम्मो की गर्जना इसमें है । दर्शन और चारित्र दोनों धर्म दमरी विशेषता इस पाहुडकी यह है कि कुन्दकुन्दके आत्माके निजगुण हैं। इसलिए परस्पराऽविरोधी है । परन्तु समय सैद्धांतिक तथा पारिभाषिक शब्दोंका ज्ञान लोगोंको दर्शनको मुख्यता दिखानेके लिए 'सिमति चरियभट्टा, अच्छी तरह था। अन्यथा पारिभाषिक शब्दोंका निर्देश व्यर्थ दसणभट्टा ण सिझति' ऐसा सिंहनाद किया है। होता | उसममय जनतामें पुरातन कथाएँ खूब प्रचलित
सूत्रपाहुडमें 'सूत्र' शब्दकी निरुति करके बड़ा ही थीं। अतएव इममें तुषमास, बाहुबली, मधुपिंग, वशिष्ट, चमस्कारपूर्ण अर्थ दिखलाया है। जैसे कि
बाहुवाम, दीपायन, शिवकुमार, अभव्यसेन, शिवभूति, सुत्ताम्म जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुदि। शालिसिक्थमन्स्य इत्यादि विविध नामोंका उल्लेख करके सूई जहा असुत्ता णादि सुत्त महा णो वि॥३॥ कथाओंका निर्देश किया गया है । स्व-प्रात्मा ही को पालंबन
सूत्र-डोरा से रहित नंगी सई जिसप्रकार सो जाती कहा है। भाव शुभ-अशुभ-शुरूप होते हैं। प्रातरौद्र या केवल छिद्र करने में ही समर्थ होती है उसका अशुभ धर्म-शुभ भाव है। शुद्धभाव वाला जीव तो उच्चस्थान =जिनशासनसे रहित कथन व्यर्थ होता है । मिथ्या हो जाता
( पावई तिहुवनसार बोही जिणसासणे जीवो) पाता है। सूत्रका अर्थ 'धरहंत-भासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं
है । भावपाहुड अन्य पाहुडोंमें सबसे बड़ा है। और यह सुत्तं' (सूत्र. १.) है। सर्वज्ञ-प्रणीत तत्वको ही सूत्र कहते
कुन्दकुन्दके अनुभवकी अविरल रसधारा बहाता है। हैं-यह जिनोक सूत्र व्यवहार तथा परमार्थ दो रूपधारी हैं ।
मोक्षपाहुडमें-मोक्षके प्राप्त करानेवाले साधनोंका शायद इसी समय स्त्री-मुक्ति, सग्रन्थमुक्ति आदि श्वेतांबर
परिचय कराया गया है। इसके अन्तमें कहा भी गया है कि मान्यता का प्रचार हो रहा होगा। इसलिए कुन्दकुन्दने
जिणपण्णत्तं मोक्खस्स कारण इसमें निरूपित है। प्रारंभदोनोंका तीव्र विरोध किया है
में श्रान्माकी बहिरंग, अन्तरंग तथा परमात्माकी अवस्थाका
और युक्रि तथा आगमके सहारे यथाजातरूप-नग्नदिगम्बरावस्था ही मुक्रिका कारण है,
वर्णन है बहिरात्मा अवस्था त्याज्य है, अन्तरंगावस्था पर
माके प्रति साधन है। सम्यग्दृष्टि श्रमणही मोक्षका अधिकारी ऐसा स्पष्ट प्रतिपादन किया है।
है, आत्माकी अभेदअवस्था ही मोक्षके लिए साधकतम है चारित्रपाहडमें-देशचारित्र और सकलचारित्रका जहाँ 'जई ध्यान ध्याता ध्येयको न विकल्प वच भेद निरूपण करके देशचारित्र गृहस्थों के लिए राजमार्ग तथा सकल
सकल न जहाँ' के समान केवल चैतन्यका ही साम्राज्य है। चारित्र मुनियोंका आदर्श मार्ग दिखलाया है।
लिंगपाहुड - स्वतन्त्र रचना होकर भी भावपाहुडका बोधपाहडमें-जिनबिम्ब. जिनागम, जिनदीक्षाका विषय इममें घलामिला है। स्वयं ग्रन्थकार ही कहते हैं ' स्वरूप चित्रपटक समान स्पष्ट दिखलाया है। इसमें गुणस्थान
कुछ है वह भाव ही है 'जानीहि भाव धम्मं किं ते लिंगेण मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण प्राटिका व्यवहार-दृष्टि संक्षिप्त
कादम्व' || भावविना व्यलिंग कार्यकारी नहीं है, श्रमण कथन किया गया है। इसमें कुन्दकुन्दने अपनेको भद्रबाहुका
जिनलिंगका ही धारक है अन्यलिंग उसके लिये लांछन शिष्य कहा है। साथ ही, गमक गुरु' कहकर श्रुतकेवली
हैं। इस प्रकार जिनलिंग-यथाजातरूपता का महत्व मुकिमार्ग भद्रबाहुका जयघोष भी किया है।
में है । अष्टपाहुबका अन्तिम पहलु शील है जो आत्माका गुण कुन्दकुन्द स्वय' कहते हैं कि इस प्राभूतमें जो कुछ कहा है शोज और ज्ञान विरोधि रहते हैं। कुन्दकुद कहते हैं है वह स्वमतकल्पित नहीं है। बल्कि जिन-कथित है।
कि शास्त्रीय ज्ञानसं शील ही श्रेष्ट हैभावपाइड-इन दो अक्षरोंमें सारे जीवनभरके अनन्त
वायरण छंद-वइसेसिय ववहारणायसत्येसु । परिश्रमोंका सार, निचोड भरा हुआ है । वे स्वयं कहते हैं- वेटेजण सदेसय तेव सयं उत्तम सीलं ॥१६॥
'भावरहिओण सिझह जह वि तवं चरह कोडि इस प्रकार शालमहिमा सबसे बड़ी है। जीवदया, कोडीओ'-( भा. पा० )
संयम, मत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्या, ज्ञान, दर्शन, तप आदि यदि 'भाव' शब्दका मतलब प्रात्मज्ञान ही है तो यह शोलका परिवार है । जीव-कर्मकी प्रन्थी शीलसे खुल जाती