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अनेकान्त
[ वर्ष १३
शंका उठाते हैं कि रागादिभाव रखते हुए प्रात्मा शुद्ध कैसे निरूपण है । कुछ निश्चय नयसे तथा अशुद्ध व्यवहार मयसे है ? उत्तरमें स्फटिक मणिका दृष्टांत निरूत्तर कर रहा है। जीव-अजीव • शुद्धभाव-प्रतिक्रमण - प्रत्याख्यान-मालोचनाप्रा.
प्रज्ञारूपी बैनीसे छेदते छेदते जीव पुद्गल अलग होकर यश्चित्त-समाधि-भक्ति- आवश्यक - शुद्धोपयोग इन सबका 'जीव जुदा पुद्गल जुदा' की घोषणा अंतर्नादसे सुनी जाती वर्णन स्वतन्त्र अधिकारों में किया है। 'नियम' की निरुकि है । अर्थात् ज्ञानसे हो यथार्थ वस्तुस्वरूप पहिचाननेसे अनादि- प्रन्यारम्भमें तथा फल अन्तमें (उपयुक) देते हैंकालीन रागद्वषोंके साथ परिणमनेवाला श्रात्मा एकाकाररूप 'खियमेण य जंकज्जंतरिणयमंणाण-दसण-चरित।' परिणामता है। इस स्थिति तक पहुंचनेके लिए अनेक विषय नियमसार यान नियमकासार अर्थात् शुद्ध रत्नप्रय । अनिवार्य हो गये हैं। जीव और पुद्गलका निमित्त-नैमि- इस शुद्ध रत्नत्रयकी प्राप्ति परमात्मतत्वके आश्रयसे होगी। त्तिक सम्बन्ध, दोनोंका स्वतन्त्र परिणमन, ज्ञानी जीव न कुन्दकुन्द गाथा-गाथामें अपना अनुभव सिद्ध-परमात्मता रागद्वेषोंका कर्ता है न भोक्रा, अज्ञानी जीव रागद्वेषोंका बतलाते हैं। परमात्मतत्त्वका प्राधार सम्यग्दर्शन है-उसका कर्ता तथा भोका है, सांख्यदर्शन नित्यवादी एकान्त होनेसे प्राश्रय पाने पर जीवकी देशचारित्र तथा सकलचारित्रकी मिथ्या है, गुणस्थान-आरोहणमें भाव और द्रव्यका निमि- दशा प्रकट होती है । परमात्मतत्वका आश्रय ही सम्यग्दर्शन तमित्तिकपन, मिथ्यात्वादि जडत्व और चेतनत्व, पुण्यपाप- है. वही ज्ञान-चारित्र, प्रतिक्रमण, आदि सब कुछ है। जो का बन्धरूप, मोक्षमार्गमें चरणानुयोगका स्थान प्रादि कितने भाव परमात्मतत्त्वसे सर्वथा अलग हैं वे मोक्षका कारण नहीं ही विषय इस अधिकारमें पाये जाते हैं।
हैं । सम्यग्दर्शनसे शून्य निरी व्यवहारभक्ति व्यवहारप्रत्याश्री जयसेनाचार्यके शब्दोंमें इस ग्रन्थकी महत्ता पर्वतके ख्यान आदि सारे उपचार भाव द्रव्यलिंगी मुनिके होते हैं नह।इस ग्रन्थका विशेषता यह है कि 'ज्ञानी जाव कम और प्रत्येक जीव उन्हें अनन्तबार कर चुका है। परन्तु ये फल-भोगते समय बद्ध नहीं होता, ज्ञानीकी (सम्यग्दृष्टिकी) सब भाव जीवको बार बार संसारचक्रमें घुमानेवाले ही सारी क्रियाएं निर्जराके लिए ही होती है, ऐमा बार बार * साकि परमात्मतत्व प्राश्रयविना-उसका लक्ष्य स्पष्ट कहा गया है।
कर जीवका स्वभाव परिणमन अंशतः भी मभव नहीं। समयसारकी भूमिका नाटकके समान ही है। शायद
इस प्रकार ग्रन्थका केन्द्रबिन्दु परमात्मतत्त्व ही हैउस समय समाजमें नाटकोंका बोलबाला और प्रभाव समाज इसके सहारे थानेवाले पर्याय, गुण, षड्दव्य, जीवक पर ज्यादा होगा । कुन्दकुन्दने जनताकी रुचिको अध्यात्मका
असाधारण भाव, व्यवहार-निश्चयनय, रत्नत्रय, तथासम्यक्त्वमें तरफ खींचनेके लिए इस प्रथका कथन नाटकके समान पात्र- जीवकी दशना ही निमित्त है, इस तरहका नियम, पंचपरयुक्त किया है। कविवर बनारसीदासजीने समयसारको
यसारका मेष्ठी-स्वरूप आदि अनेक विषयोंका सरस वर्णन इसमें मिलता 'नाटक' संज्ञा इसीलिए दी है। इसमें बिल्कुल मंदेह नहीं
है। और इसीलिए कुन्दकुन्द स्वयं प्रन्थ के अन्तम कहते हैकि यह समयसार अध्यात्मगीता है और ज्ञानी मन्त महा- यह सुन्दर मार्ग हैस्माओंके गलेका हार बना हुआ है।
ईसाभावेण पुणो, केई शिंदन्ति सुदर मग्गं । ६. नियमसार ('मुक्तिधामका सुन्दर मार्ग') तेसिं वयणं सोच्चा अभत्ति मा कुणह जिमग्गे।६।। ___ श्रीकुन्दकुन्दने इस ग्रन्थ के सिंहावलोकनमें उपयुक्त सचमुच ही यह सुन्दर राजमार्ग है। तीनों प्रन्थोंके प्रति सकेत किया है
७. अष्टपाहुड (पहलुदार माणि) 'जीवाण पुग्गलाणं गमण जाणेहि जाव धम्मत्थी।
। कुन्दकुन्दने रत्नत्रयको अष्टपाहुडोंमें पहलुदार बनाया
रदाण गच्छाद ॥ है। इस ग्रन्थके पहलुओंका तेज प्राभृतत्रयोंमें जगमगाता मियम णियमस्स फलं णिट्टि पवयणम्म भत्तोए। है। प्रत्येक पाहडका नाम ही महत्वपूर्ण तथा अन्वर्थमंज्ञक पुव्वावर-विरोधो जदि अवरणीय पूरयंतु ममयबहा ॥१८५ हैं। दर्शन, सूत्र, चारित्र, बोध, भाव, मोक्ष, लिंग और
प्रस्तुत ग्रंथमें कुन्दकुन्दने अपने पूर्व-रचित ग्रन्थोंका शील ये अष्ट प्राभृतके नाम हैं। मार ही निकाला है-इस ग्रन्थमें मोक्षमार्गका स्पष्ट सत्यार्थ दर्शनका मतलब सम्यग्दर्शन प्रवचनसारमें जिस प्रकार