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अनेकान्त
| वर्ष १३
है। विषय विरक, तपोधन माधु शीलजनमें स्नान करनेसे नन्दीश्वर तथा शांति भक्निके लिये प्राकृत गाथाके बिना मिद्यालयको प्राप्त होते हैं । महद्भक्ति दर्शन और शोल इन केवल गथ ही है। ये भक्रिपाठ अपनी प्राचीन परम्पराकी तीनोंसे भिन्न चीज और कुछ नहीं है।
भूमि पर अटल हैं-प्रो० उपाध्ये कहते हैं- Bhakties इस प्रकार अष्टपाहुडोंमें सारा जिनशासन भावअनु- are something like devotional pravers भूतिसे गूंथा हुआ है। कहते हैं कि इसतरह ८४ पाहुड with a strong dogmatic and religious
background. इस प्रकार एक मूर्खको भी ये भक्रिपाठ दशभक्तिया-सुज्ञके समान मूर्खको भी सयाना सयाना बना देती हैं। बनाती हैं। संस्कृत भक्रिपाठ पूज्पादकृत और प्राकृत भकि- बारह अणुवेक्खा ('वैराग्यकी चावी') पाठ कुन्दकुन्दकृत है। पहली तीर्थकरभक्ति है--जिसमें यह ग्रन्थ कुन्दकुन्द-कृत है । ग्रंथके अन्त में कुन्दकुन्दका २५ जिनोंकी वंदना को गई है। पहली. गाथाके सिवाय नाम पाया जाता है। प्रो. उपाध्येकी रायमें यह ग्रन्थ कुन्दबाकीकी गाथाएँ श्वेताम्बर पंचप्रतिकमणकी गाथाओं के समान कुन्दकृत निश्चित नहीं है । परम्पग कुन्दकुन्दकृत माननेके मिलती जुलती है । सिद्धभक्ति-दूसरी भाके है। इसमें लिये अनुकूल तथा अनिवार्य है। इसकी कितनी ही गाथाएँ सिद्धोंके वर्ग, उनका मार्ग सुख प्रादिका निरूपण है। मूलाचारसे ठोक मिलती-जुलती है। श्रुतक की विशेषता यह है कि प्राचीन श्रुतोंको बारह भावनाएँ या अनुप्रेहा मुनियोंके लिये महाव्रतोंमें अंग १४ पूर्वका उल्लेख करके बंदन किया है । चारित्रभक्ति- स्थिरता लानेके लिए आवश्यक मानी गई हैं। इसमें क्रमशः में मुनिके सामायिक-छेदोपस्थापना परिहारविशुद्धि-सूक्ष्म बारह अनुप्रेक्षाका वर्णन है। जिसके प्राधार पर आगे श्री सांपराय-यथाख्यात-इस तरह ५ प्रकारकं चारित्र कहे हैं। कार्तिकेय स्वामीने एक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा है।
अनगारभक्ति में सभी महामुनियोंका स्तुति की गई कुंदकुंदके उत्तर और समन्तभद्रके पूर्वका वातावरण है। इसमें श्रमणके उच्च आदर्श पर पर्याप्त प्रकाश डाला वैदिक काल में गौडपादक मांडक्योपनिषद में जो विचार गया है। आचार्य भक्ति में प्राचार्योंके चरणों के पास खुदकी
पास खुदका हैं वे सर्वथा अद्वैतवादी, एकांतवादी, प्रक्रियावादी हैं । इन
ना मंगल-याचना नित्यके लिये करते हैं। 'तुम्हें पायपयारुह- विचारोंका खंडन तत्वतः कुन्दकन्द करते हैं। वेदको हो मिह मंगलमत्थु मे णिच्चं'। इस भकिमें चार्यों का चित्रण
परवा मानने वाले मीमांसक, ईश्वरको सृष्टिकर्तृत्वका विधान बड़ा हो रोचक एवं काव्यमय किया गया है
करने वाले न्याय-रैशेषिक, कैतवादि-शैव वैष्णव भौतिकवादी गयणमिव णिरुवलेवा अक्वोहा मुणिवमहा।
चार्वाक, शुक-बृहस्पनि-चाणक्य कौटिल्य इन नीति त्रयोंके निर्वाण भक्ति-जैन तीर्थक्षेत्र तथा निर्वाणभूमियोंके खोजके
प्रवर्तक-जिन्हें लौकायानक भी कहा जाता है और क्षणिकवादी लिये बड़ी ही महन्वपूर्ण है। इसमें सभी पुण्यभूमियों तथा
मौत्रांतिकवादी बौद्ध-इन सब दर्शनोंको अपने अपने पन्थमें निर्वाणभूमियोंका निर्देश किया गया है।
धुन सवार हो रही थी। प्रत्येक दर्शनकार अपनी अपनी पचगुरुभक्ति-अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय • साधु खिचड़ी अलग पकाने में मस्त था । नित्यवादी-मांख्यका नाम ये पंचपरमेष्ठी गुरु हैं इन्हींको भक्रिको यह लिये हुए है। तो स्पष्ट कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें-गाथाओंमें पाया जाता है।
इन सब भक्रियोंके सूक्ष्म निरीक्षणसे ज्ञात होता सारे दर्शनोंका खंडन और स्वमतमण्डन इन्हें करना पड़ा। है कि कुन्दकुन्दने कितने सरल हृदयसे कितनी गहरी अन्य दर्शनोंका संकीर्ण वातावरण तथा प्रभाव होनेसे भक्ति की है। उन्होंने जिनेन्द्र के वचन तथा उनके कुन्दकुन्दके मभी ग्रन्थ अध्यात्मप्रधान, एक स्वात्माकी पादस्पर्शको भूमि तकको वंदन किया है। सभी भक्कियोंके विशुद्धिकी प्रधानता लेकर रचे गये हैं। इसीसे सिद्धान्तअन्तिम गयभागमें वे अपने लिए वर मांगते हुए कहते हैं- विरोधी नहीं है । औपनिषदिक प्रभावके अनन्तर दो तीन दरवक्खो कम्मक्खओ, समाहिमरणं च बोहि शतकोंका काल सूत्रोंका कहा जाता है, इस समयकी एक लाहो य । अर्थात्-मेरे दुःखोंका जय हो, समाधिमरण लहर थी कि अपनी बात सूत्र में बांधना। जैनसाहित्यमें हो और बोधिको प्राप्ति हो । पंचगुरुका स्मरण ही उस समय उमास्वामी सुप्रसिद्ध सूत्रकार थे। इन्होंने णमोकार-मंत्र है। 'एदे पंचणमोयारा भवेभवे ममसुहं दितु, तत्वार्थसूत्र नामक ग्रन्थमें सारा वीर-शासन गूंथा है।