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________________ २१२) अनेकान्त [ वर्षे १० बुद्ध एक स्वतन्त्र बौद्धदर्शनका निर्माता कहा जाता है। वह संक्षेपसे जो कहा है, उसीका विस्तार इन सार ग्रन्थों में है। वैदिक-औपनिषद् शानके प्रभावका काल था । सांख्य- ३. पञ्चस्तिकाय-(वत्थुमहावोधम्मो' की प्रतीति) न्याय-बौद्ध-चार्वाक-वैशेषिक दर्शन अपने-अपने समाजमें कहा जाता है कि इस ग्रन्थकी रचना श्रीकुन्दकुन्दके फलते,फूलते थे। हर एकने धर्मका स्वरूप उलट-पलट कर विदेहक्षेत्रसे प्राने के बाद हुई है। टीकाकार जयसेनाचार्यके वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी काया पलट कर दी थी। अनुमार शिवकुमार महाराजके प्रबोधके लिए इस प्रन्यकी श्री. कुन्दकुन्दको इन विरोधी दर्शनोंका मन्थन करके रचना हुई है, अन्तस्तस्त्र तथा बहिस्तत्त्वकी गौण-मुख्य जिनशासन-स्याद्वादका नवनीत (मक्खन) निकालना प्रतिपत्तिके लिए यह ग्रन्थ लिखा गया है। श्रान्माके था। उन्होंने सबसे पहले श्रद्धाको नीव जनताके हृदय पर सम्पर्कमें रहनेवाले जड पदार्थोंका विश्लेषण इसमें है। डाली। भारतमें जैनदर्शनानुयायी जनताकी संख्या कम पाँच द्रन्य जीवके साथ रहते हुए भी जीवसे सर्वथा भिन्न हैं। होने पर भी उसके दर्शनको मौलिकता सबसे अधिक थी। प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है, धर्म-अधर्म-अाकाश तथा काल ये राजाश्रय और विशिष्ट परिस्थिति प्राप्त होने पर तो समंत- द्रव्य नित्य शुद्ध हैं। जीव और पुद्गलका सम्बन्ध भद्र जैसे कितने ही प्राचार्यो द्वारा यह मौलिकता सवशेष- संयोगी है, 'पुद्गलनभधर्म-अधर्मकाल, इनसे न्यारी है रूपसे सिद्ध हो चुकी है । समन्तभद्ने स्थान-स्थान पर जीवचाल.' इस वाक्यमें उसीका पुरस्कार किया गया है। अपनी प्रकाव्य युक्रियोंसे परमतोंका खण्डन करके स्याद्वाद- जीव-पुद्गल एक दुसरेके निमित्तसे अशुद्ध बन रहे हैं। का डंका बजाया है। संयोग दूर हटनेसे ही जीव द्रव्य शुद्ध परमात्मा हो जाता कुन्दकुन्दकृत पाज जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं उन्हींका पहले है। पंचास्तिकाय तथा कालका अस्तित्व इस ग्रन्थमें सप्तविचार करना जरूरी है। भंगीसे सिद्ध किया गया है। यह ग्रंथ निश्चयसम्यग्दर्शनके कुन्दकुन्द-कृत ग्रंथ तथा विषय परिचय- स्वरूपको स्पष्ट रूपसे प्रगट करता है। धर्म वस्तुस्वभावके १. मूलाचार-यह ग्रन्थ आज कुछ विद्वानोंकी रायमें बिना और कोई चीज नहीं है। प्रान्माकी शुद्धावस्था पहवट्टकर-कृत समझा जाता है परन्तु अधिकांश विद्वानोंकी चानना ही सम्यग्दर्शन है। इस ग्रन्थमें वैज्ञानिक दृष्टिकोणसं रायमें कुन्दकुन्दकृत ही है। कर्नाटक साहित्यम कुन्दकुन्दका शुद्धद्रव्यवर्णन पाया जाता है। नाम मूलाचारके लिये स्पष्ट या जाता है। और मूलाचार ४. प्रवचनसार-कुन्दकुन्दका प्रवचनमार ग्रन्थ सम्यकी कितनो ही गाथाएँ कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंमें अनुद्धतरूप- ज्ञानको प्रधानतासे मारे अध्यात्मग्रन्थों में बेजोड़ है। इसमें से पाई जाती हैं। स्पष्ट कहा है कि ज्ञान ही प्रान्मा है। प्रात्माके बिना ज्ञान २. रयणसार-इस नामका जो ग्रंथ उपलब्ध है वह हो ही नहीं सकता । जैसे कि निम्न गाथासं प्रकट हैकुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंसे कुछ अलगमा दिखता है । यह 'णाणं अप्प त्ति मदं वदि णाणं विणा ण अप्पाणं । एक सार ग्रन्थ होकर अधूरा तथा बिखरा हुआ ज्ञात होता तम्हा गाणं अप्पा अप्पा गाणं व अण्णं वा ॥२७॥ है। मुनिचारित्र तथा श्रावकधर्मका वर्णन इसमें है। इस ग्रन्थके जो तीन अधिकार हैं वे मानों तीन श्रुतपञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार, समयमार तथा नियम- स्कंध ही हैं। पहला श्रुतम्कंध ज्ञानतत्व-प्रज्ञापन है । अनासार ये चार सार प्रन्थ हैं । इनसे पहले तीन ग्रन्थ प्राभृत- दिकालमे पर सन्मुख-जीवने 'मैं ज्ञानस्वभावी हैं, मेरा सुख त्रय या नाटकायके नामसे भी प्रसिद्ध हैं। इनके सिवाय आत्मासे अलग नहीं; इस तरहकी श्रद्धा ही नहीं की। बारह अणुवैक्खा, दशभक्ति तथा अष्टपाहुड नामके ग्रन्थ इस ग्रन्थमें कुन्दकुन्दने मानो जीवनके ज्ञानानन्द-स्वभावका भी कुन्दकुन्द कृत सुप्रसिद्ध हैं। अमृत ही बरसाया है। केवलीका ज्ञान और उन्हींका सुग्व पसास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार इन तीनों उपादेय है । क्षायिक ज्ञान ही उपादेय है, क्षायोपमिक ग्रन्थों द्वारा साक्षात् निश्चयरत्नत्रयके रूपमें मोक्षमार्गको ज्ञानधारी केवल कर्मभार सहनेका ही अधिकारी है। प्रत्यक्षसाधकके लिये साफ सुथरा करके रखा है। तीनों ग्रन्थोंमें ज्ञान ही सुख है, परोक्षज्ञान प्राकुलतारूप है, इत्यादि मात्माको मध्यबिन्दु-केन्द्रस्थान बनाया है। कमद कवि बातों पर जिन्हें श्रद्धान नहीं उन्हें मिथ्याष्टि कहा है। इस भरतेशधैभवकार रत्नाकरने कहा है कि प्राभृतपाहुडोंमें तरह इस में केवलज्ञान तथा प्रतीन्द्रिय सुखकी ओर जीवक
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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